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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 364 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
अतीतकाल में जितने सिद्ध हो चुके हैं, उससे अनन्त-गुणे जीव आलू के एक अंश में होते हैं वे सभी जीव सिद्धत्व-सत्ता से युक्त होते हैं अहो भावी भगवंत आत्माओ! जब तुम प्राणीमात्र में भगवत्ता को निहारते हो, तो फिर सोचना कि किसमें हम छोंक/बघार लगवा रहे हैं? आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं- क्या अपने बेटे को आप माँस खाते देख सकते हो अथवा रात्रि में भोजन करते देख सकते हो ? भोजन से तात्पर्य खाद्य, स्वाद, लेह, पेय से हैं
मण्णंति जदो णिच्चं मणेण णिउणा मणुक्कडा जम्हां मणुउब्भवा य सव्वे तुम्हाते माणुसा भणिदा149-गो.(जी.का)
अहो मानवो! आचार्य नेमिचंद्र स्वामी ने "गोम्मटसार" में आपको मनुष्य कहा हैं जो मननशील, चिंतनशील, विवेकशील प्राणी होता है, जो उत्कृष्ट परिणामों से युक्त होता है, जो मनु की संतान है, उसका
म मनुष्य हैं मनीषियो! खाद्य, स्वाद, लेह्य, पेय चारों प्रकार के भोजन के त्याग का नाम त्याग हैं ऐसा नहीं है कि रात्रि में दूध आदि चल जायेंगें भट्टियाँ जल रही हैं, रबड़ी बन रही है, क्योंकि रात्रिभोजन का त्याग है, अतः हमारे लिए तैयार हो रही हैं वीतराग-विज्ञान कहता है कि खाना छोड़ो और आज के डाक्टर कहने लगे कि दिनभर खाओ, थोड़ा-थोड़ा खाओ, चार बार खाओं वे ठीक कह रहे हैं, तुम बार-बार खाओगे, दिनभर खाओगे, तभी तो इनकी दुकानें चलेंगी इससे लगता है कि आज के भगवान् तो डाक्टर ही बन गये
भो मनीषियो ! अरहंत की वाणी को नहीं मानता परन्तु डाक्टर की वाणी को मान लेता हैं अभी कुछ दिन पहले की घटना है, इक्कीस वर्ष के नवयुवक को कैंसर थां माता-पिता की गोद में बैठा बेटा कहता है-पिताजी! अब तो सुनिश्चित है कि मुझे जाना है, पर आप बिलखना मत, आप तो "णमोकार" सुना दों बता रहे थे उनके पिताजी कि ऐसी निर्मलता उसके परिणामों में थीं देखो, जिस जीव की भवितव्यता निर्मल होती है, उसी को ऐसे भाव आते हैं और जिसकी बिगड़ जाती है, वह पंचपरमेष्ठी के चरणों में पहुँच कर भी परिवार ही को देखता हैं अब अपनी-अपनी भवितव्यता निहारना, लेकिन चौका को चौका ही रहने देनां जिसमें द्रव्यशुद्धि हो, क्षेत्रशुद्धि हो, कालशुद्धि हो, भावशुद्धि हो, वहाँ जो भोजन हो, उसका नाम चौका हैं जहाँ चार शुद्धियाँ हैं, वहाँ चौका हैं
अहो ज्ञानी! जब तुम चौके में बैठकर भोजन करते थे, तभी तो अनन्तचतुष्टय की साधना होती थीं अब तो तुम्हारे भाव ही नहीं आतें उन घरों को श्रावक का घर नहीं कहना, जिस घर में रात्रिभोजन होता हों बोले-महाराज जी! अब क्या करूँ? बच्चे मानते ही नहीं हैं, वह तो रात्रि में ही भोजन करते हैं ओहो! तुम
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