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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 363 of 583 स्वार्थ हो सकता हैं दया में स्वार्थ नहीं होता, दया निस्वार्थ होती हैं करुणा में भी स्वार्थ नहीं होतां लेकिन ध्यान रखना, वही दया / करुणा मोक्षमार्ग में कार्यकारी होती है, जो अनुकम्पा से युक्त होती हैं करुणा और अनुकम्पा में अन्तस्थ की दृष्टि होती है, और दया बाहर में क्रियारूप होती हैं दया दिखने में आती है, और करुणा अन्दर से उत्पन्न होती है तथा करुणा से युक्त दशा मोक्षमार्ग में कार्यकारी होती हैं सक्रिय करुणा का नाम दया हैं अहो! समझना, जिसको स्वयं पर दया नहीं है, वह दूसरे पर कभी भी दया नहीं कर सकता. दिखावा कर सकता हैं ऐसे निर्दयी को बंध नियम से है, जीव का वध हो या न हों
भो ज्ञानी ! इसी प्रकार जीव की रक्षा हो या न हो, पर दयाशील से निर्जरा सुनिश्चित होती हैं अमृतचन्द्र स्वामी की कितनी दया है ! वह कह रहे हैं कि अभी तुमको शरीर से जीव- वध का त्याग कराया था, अब तुम परिणति में भी जीव का वध मत करो और इतना ही नहीं, उन सूक्ष्मजीवों का भी वध मत करो. कर्म से भी मत बंधों दृष्टि देखनां दया उभयपक्षीय हैं जीव का वध नहीं किया तो उस पर तुमने दया की, अतः कर्म ने आपको नहीं बांधां इस प्रकार तेरे कर्मों ने स्वयं पर दया कीं मुमुक्षु जीव प्रतिपल / प्रतिक्षण स्वयं पर दयादृष्टि रखता हैं इसीलिए सम्यक्त्व प्रकट तभी होता है जब अनुकम्पा गुण पहले सामने होता हैं जो जीवदया से शून्य है, उसके पास प्रशम, सम्वेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य कहाँ ? आस्तिक्य का अर्थ होता है आत्म-तत्त्व में श्रद्धां पंच परमेष्ठी पर श्रद्धा है, प्राणी मात्र पर करुणा दृष्टि है, जिनदेव ने जो कहा वह सत्य है, इसका नाम आस्तिक्य हैं भगवान् जिनेन्द्रदेव ने कहा है कि किसी जीव का भक्षण मत करना, रात्रि में भोजन नहीं कराना, भोजन नहीं करना और रात्रि में भोजन की अनुमोदना नहीं करना अब बताइये कि यदि आप रिक्त हो, तो धर्मात्मा हो और युक्त हो, तो स्वयं समझ लों
मैं एक गाँव में गयां जिनालय में पूरी वेदियों में आलू प्याज की गंध छाई हुई थीं मैंने श्रावकों से पूछा- क्यों भाई ! यह क्या हो रहा है ? बोले- महाराज श्री ! आज यहाँ पर शादी है, तो धर्मशाला किराये पर है, पांच सौ रुपए आयेंगे, जो धर्मशाला - मंदिर आदि की व्यवस्थाओं के काम आयेंगें मैंने पूछ ही लिया- क्यों, कितनी समाज है? कितने लोग कटोरा लेकर भीख माँगते हैं, जो कि जिनेन्द्रदेव के चरणों में आलू-प्याज बन रहा है और किसके लिए ? मंदिर और धर्मशाला की व्यवस्था के लिए ? अहो ! द्रव्य का इतना लोभ ! आचार्य नेमिचंद्र स्वामी कह रहे हैं
एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्यमाणदो दिट्ठां
सिद्धेहि अनंतगुणा, सव्वेण वितीदकालेन गो.जी.कां. 196
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