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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज
ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
झूठा कह दोगे तो तुम हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह के पाप में अन्दर व बाहर से एक रहते हुये भी ज्ञान स्वभावी हो तथा आत्मा के अभिप्राय को न समझकर संसार के स्वरूप में ही भटकते रहोगें
आचार्य अमृतचंद्र स्वामी की कारिका पढ़ते समय व्यवहारनय अभूतार्थ है अर्थात् झूठा मानकर तुम सोच रहे थे कि हमें बोध हो गया और हम मोक्षमार्ग पर आरूढ़ हो गयें पर ऐसा मानकर अज्ञानांधकार नाश को प्राप्त नहीं होता हैं
भो ज्ञानी! आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने "समयसार" ग्रंथ की बारहवीं गाथा की टीका करते हुये कहा है कि "हे भव्यों! यदि तुम जिनमत का प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ व्यवहारमार्ग का नाश हो जायेगा और निश्चय के बिना तत्त्व (वस्तु) का ही नाश हो जायेगां ऐसे ही, पहले जिनवाणी का विरलन कर दो, फैला दो, फिर आत्म-तत्त्व को समेट लों जैसे-गंदे कपड़ों को साफ करने के लिये पहले तुम पानी में गीले करते हो, साबुन लगाते, रगड़ते हो, फिर साफ पानी में डालकर उसका सारा साबुन निकालकर सूखने के लिये फैला देते हो, मौसम के अनुसार पर्याप्त समय व्यतीत हो जाने पर सूखे और साफ कपड़ों का तुम उपयोग करते हों इसी तरह तुम्हें निश्चयनय एवं व्यवहारनय के भेद/प्रभेद की गुत्थि में प्रवेश करना पड़ेगा, मंथन करना पड़ेगां अतः, सावधानी पूर्वक इनका बोध प्राप्त होने पर मोक्षमार्ग में प्रवेश होगां ।
भो ज्ञानी! निश्चय व व्यवहारनय की चटपटी बातों में ही मत अटक जाना, अन्यथा जैसे दाल में भपका (बघार) डाल देने से या नमक डाल देने से जो दाल का स्वाद आता है, वह दाल का मूल स्वाद नहीं होता, जीवन भर ऐसी दाल खाते रहने पर भी तुम दाल के स्वाद को नहीं बता सकते हों इसी तरह आत्मा का जो स्वाद (बोध) होता है, वह 'डाला' नहीं जाता है, पर के हटाने से स्वयं सत्य स्वभाव में प्रगट होता हैं
भो ज्ञानी! अनादि से भोगों के बघार दिन-प्रतिदिन क्षण-प्रतिक्षण डालते हुये तुम आत्मा के स्वाद को जानना चाहते हों आचार्य अमृतचंद्र स्वामी इस कारिका में कह रहे हैं कि "निश्चयनय के बोध से रहित यह सब संसार ही है" मेरा विदिशा में प्रभाव है तथा देश के प्रधानमंत्री का देश में प्रभाव है तो वो पुण्यात्मा हैं
भो ज्ञानी! चारित्र की कीमत को प्रभाव से मत जोड़नां जिसने संयम को, आगम को प्रभाव से जोड़ा, उसने संयम और आगम की कोई कीमत नहीं की जैसे, जब तुम श्रीजी की प्रतिमा लेने जयपुर जाते हो तो वहाँ प्रतिमा की कीमत नहीं चुकाते हो, न्यौछावर देकर आते हों कारण? अरिहन्तों को खरीदा नहीं जाता, निग्रंथों को खरीदा नहीं जातां
भो ज्ञानी! तुमने "समयसार" पढा, "मलाचार" पढा, "प्रवचनसार" पढा, सब आगम पढ लिये फिर भी हम गिरे तो कहाँ गिरे? जैसे गिद्ध उड़ा तो आसमान में लेकिन उसकी दृष्टि रही मांस के टुकड़े परं जैसे ही मांस का टुकड़ा या मरा जानवर दिखा, झपट्टा मारकर मांस को ले उड़ां इसी तरह तू अहंतों के जिनालय
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