________________
पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 355 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 v-2010:002
"वस्तु का स्वरूप है त्याग" बहिरङ्गादपि सङ्गात् यस्मात्प्रभवत्यसंयमोऽनुचित परिवर्जयेदशेषं तमचित्तं वा सचित्तं वा 127
अन्वयार्थ : वा तम् = तथा उस बाह्य परिग्रह कों (चाहे वह) अचित्तं = अचित्त हों वा = अथवा सचित्तं = सचित्त हों अशेषं परिवर्जयेत् = सम्पूर्ण ही छोड़ देना चाहिएं यस्मात् =क्योंकि बहिरङ्गत् सङ्गात= बहिरंग परिग्रह सें अपि अनुचितः = भी अयोग्य अथवा निंद्यं असंयमः प्रभवति = असंयम होता हैं
योऽपि न शक्यस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादिं सोऽपि तनूकरणीयो निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वम् 128
अन्वयार्थ : अपि = औरं यः = जो धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादि = धन, धान्य, मनुष्य, गृह, सम्पदादिकं त्यक्तुं न शक्यः = छोड़ने को समर्थ न हो सः अपि = वह परिग्रह भी तनूकरणीयः = न्यून करना चाहियें यतः निवृत्तिरूपं = क्योंकि त्यागरूप ही तत्त्वम् = वस्तु का स्वरूप है
भो मनीषियो! जिनके अंतरंग में निर्मलता है, उन्हें किसी के दोष दिखते ही नहीं, क्योंकि उस जीव को निजस्वभाव में रमण के अलावा दोष देखने की फुरसत ही कहाँ एक ज्ञानी योगी के अन्तरंग में जब भावों की निर्मलता होती है, तो उसकी दृष्टि में यही लगता है कि विश्व के प्राणी मात्र भगवत्ता को प्राप्त करें तीर्थंकर बनने वाली आत्मा यह नहीं देखती कि कौन कैसा है, वह आत्मा तो यह देखती है कि सभी जीव ऐसे ही हों 'कौन, कैसा है यह शब्द तो कषाय से भरा है तथा 'सभी ऐसे हों' इसमें दया/करुणा हैं प्रत्येक जीव सत्स्वरूप हो, जीव करुणा से भीगा हो, जीव साम्यभाव से युक्त हो, प्रत्येक जीव वात्सल्य से युक्त हो, ऐसी भावना जिसके अन्तरंग में होगी, उसका वात्सल्य पहले झलकेगा और जिस जीव की भाषा में पत्थर से
Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com