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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 34 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
अभूतार्थ बताते हुए कहते हैं कि भूतार्थ के बोध से विमुख प्रायः सब ही संसारी जीव हैं अतः, इस ग्रंथ में "अबुधस्य बोधनार्थ" अर्थात् बोध से रहित जीव को व्यवहार के स्वरूप का बोध हो जाने से उसका दुर्निवार संसार- स्वरूप नाश को प्राप्त हो जाता हैं अतः हमें यह समझना अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि अध्यात्म ग्रंथों में व्यवहार को अभूतार्थ (असत्यार्थ) कहा, इसका क्या अर्थ है ? मनीषियो! अभूतार्थ का अर्थ निदान रहित 'झूठा' मात्र नहीं होता, क्योंकि मोक्षमार्ग में 'अ' उपसर्ग का अर्थ 'ईषत्' होने से अभूतार्थ/असत्यार्थ का अर्थ 'तात्कालिक प्रयोजनवान' माना गया हैं आचार्य जयसेन स्वामी ने 'समयसार' ग्रंथ की टीका करते हुए कई स्थानों पर लिखा है कि व्यवहारनय असत्यार्थ होने पर भी, साधक को उसकी भूमिका के अनुसार प्रयोजनवान हैं निर्विकल्प समाधि में निरत होकर रहने वाले सम्यग्दृष्टियों को भूतार्थ स्वरूप ही प्रयोजनवान माना गया है, किन्तु उन्हीं निर्विकल्प समाधिरतों में से किन्ही को सविकल्प अवस्था में मिथ्यात्व-कषायरूप दुर्ध्यान को दूर करने के लिये व्यवहारनय भी प्रयोजनवान होता हैं "आलाप पद्धति" में आचार्य देवसेन स्वामी ने एक सूत्र दिया है :
"मुख्याभावे सतिप्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्त्तते" (212)
अर्थात् मुख्य के अभाव में प्रयोजनवश उपचार की प्रवृत्ति होती हैं भो ज्ञानी! आगम एवं अध्यात्मभाषा में व्यवहारनय के कई भेद किये हैं जब तक इनकी गुत्थी नहीं सुझलती है तब तक मोक्षमार्ग पर आरोहण नहीं हो पातां अध्यात्म- अपेक्षा व्यवहारनय के दो भेद किये गये हैं-सद्भूत व्यवहारनय एवं असद्भूत व्यवहारनयं "एक वस्तु को विषय करनेवाला सद्भूत व्यवहार नय है और भिन्न वस्तुओं के विषय को ग्रहण करने वाला असद्भूत व्यवहार नय हैं" सद्भूत व्यवहारनय के उपचरित और अनुपचरित नामक दो भेद हैं "कर्मजनित विकारसहित जीव के गुण-गुणी के भेद को विषय करने वाला उपचरित- सद्भूत- व्यवहारनय है, जैसे जीव के मति ज्ञानादिक गुणं" यह 'अशुद्ध सद्भूत व्यवहार' नय शब्द से भी जाना जाता है,जैसे जीव के राग द्वेष आदि हैं "कर्मजनित विकार से रहित जीव के शुद्ध गुण-गुणी के भेदरूप विषय को ग्रहण करने वाला अनुपचरित- सद्भूत- व्यवहारनय है, जैसे जीव के केवलज्ञानादि गुणं" इसे "शुद्ध- सद्भूत व्यवहारनय" शब्द से भी जाना जाता हैं सद्भूत की तरह "असद्भूत- व्यवहार के भी दो भेद हैं-उपचरित असद्भूत एवं अनुपचरित असद्भूतं" संश्लेष-सम्बन्ध से रहित ऐसी भिन्न-भिन्न वस्तुओं का परस्पर में सम्बन्ध ग्रहण करना उपचरित असद्भूत व्यवहारनय का विषय है-जैसे देवदत्त का धन, देवदत्त की स्त्री, आत्मा, घटपट और रथ आदि का कर्ता हैं संश्लेष सहित भिन्न-भिन्न वस्तुओं के सम्बन्ध को विषय करने वाला
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