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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 332 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 स्वभाव की विराधना, अपने वीर्य को छुपाने की परमकला हैं हे वर्द्धमान! आप वीर हो गये, क्योंकि आपने अपने वीर्य की चोरी नहीं की जिन्होंने अपने वीर्य की चोरी की है, वह महावीर नहीं, दरिद्री हो गये, संसार में भटक गयें ममत्व-दशा के पीछे उन्होंने अपनी वीरत्व- शक्ति का विनाश कर लियां अहो! ममत्व की महिमा तो देखों वह ममत्व अनेक रूपों में बिखरकर आता हैं कभी राग में बदलता है तो कभी द्वेष में भी बदल जाता हैं ममता पहले माँ बनकर आती है, जब ममता पूरी नहीं हो पाती है तो ममता अपनी समता को खोकर सियालनी के रूप में बेटी को ही खा लेती हैं इसलिए ममता से डरकर जीनां इतिहास साक्षी है कि ममता ने ही समता को खाया हैं भो ज्ञानी! एक सेठ आँखो में आँसू भरकर बोला "भगवन्! मैं साधुजनों के दर्शन करने को तड़प रहा हूँ लोग तो विभूति को देखकर खुश होते हैं, पर मैं वैभव को देखकर दुःखी हूँ , क्योंकि लोगों को हमारा वैभव तो झलकता है, लेकिन खर्च नहीं झलकतां मैं जहाँ भी जाता हूँ, वहाँ लोग मुझे पहले ही पकड़ लेते हैं कि इतना दान देते जाओं मेरी हालत को नहीं समझते हैं मैं क्या करूँ? प्रभु! आपके पास भी आया हूँ तो छिपकर आया हूँ मेरी बड़ी विडम्बना हैं इस ममता ने मेरी समता को समाप्त कर दिया है, क्योंकि पहले लगता था कि जोड़ लो, अब लगने लगा है कि छूट न जायें" हे अर्थ-लोलुपियो! तुम्हें धिक्कार हैं जो सांस लेने न दे, उस संपत्ति से क्या प्रयोजन? एक गरीब खेत में मिट्टी के ढेलों में चैन की नींद सो रहा है, दूसरा जीव गद्दे पर पड़ा हुआ है तथा सोने की चैन गले में पड़ी है, जो उसे चैन से सोने नहीं दे रही थीं यह संसार की दशा हैं अहो मनीषियो! सुख-चैन का जीवन जीना चाहते हो तो चैनों को उतारकर चैतन्य प्रभु को ही देखना पड़ेगा जब तक चैतन्य आत्मा पर दृष्टि नहीं है, तब तक चैन की नींद आने वाली नहीं हैं आचार्य अमृतचंद स्वामी भी आपको छुड़ाने की बात नहीं कर रहे हैं, आपको चैन से सुलाने की बात कर रहे हैं अहो! जिनवाणी को सुनने-सुनाने में जो आनंद है, लगता है इस पर्याय में दूसरा कोई आनंद नहीं है, क्योंकि निज समरस से भरी वाणी वर्द्धमान की देशना से ध्वनित होती हैं सम्राट श्रेणिक बार-बार विपुलाचल पर जिनेन्द्र की देशना सुनने जाता था अहो! जिस जीव ने साठ हजार प्रश्न किये हों, उस जीव के पुण्य की कैसी प्रबलता होगी? अंतरंग विशुद्धि से भरा जीव थां राजा श्रेणिक की वही प्रवचन-दृष्टि तीर्थंकर प्रकृति का बंध करा गयीं प्रवचन यानि जिनवाणीं जिसको तत्त्व पर श्रद्धा है, वही तो सम्यक्दृष्टि है, वही दर्शनविशुद्धि हैं तत्त्वों के अनुसार प्रवृत्ति है, वही तो आचार है तथा तत्त्वों में गहन अध्ययन की प्रवृत्ति ही तो अभीक्ष्ण-ज्ञान का उपयोग हैं तत्त्व को समझकर सम्यक्त्व को प्राप्त हो रहा है, वही तो संवेग-भावना हैं तत्त्व को समझकर त्याग कर रहा है, Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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