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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज : Page 324 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
परंतु यह मत सोचना कि जिसके पास कुछ नहीं है वो अपरिग्रही हो सकता हैं जिसके पास सब कुछ हैं, ये कुछ नहीं हैं जिसके पास कुछ नहीं है, वे सब कुछ हैं अन्यथा जितने भिखारी हैं, वे सब अपरिग्रही हो जायेंगें
अहो! जिनवाणी माँ कह रही है कि जिसके पास एक मकान है, वह एक मकान का आस्रव कर रहा है और जिसके पास एक भी मकान नहीं है, वह शहर में जितने मकान हैं उन सबका पाप कमा रहा है, क्योंकि जब-जब निकलता है भवनों के नीचे से, तब-तब विचारता है कि ऐसा ही मेरा होतां इसलिए आचार्य भगवान् अमृतचन्द्रस्वामी की बात को स्वीकार कर लो, परिग्रह की वृत्ति को परिमित कर लों परिग्रह पाँचवाँ पाप हैं जिसे तू पुण्य का योग कह रहा है, उसे माँ जिनवाणी पाप का संयोग कह रही हैं जितने पाप तुम कमा रहे हो वह सब परिग्रह के पीछे कमा रहे हों धन मिल जाए, धरती मिल जाए और जब धन व धरती मिल जाती है, तो राग की वृत्ति तीव्र हो जाती हैं फिर आप उपभोग की सीमा बढ़ा लेते हो; और जब उपभोग की सीमाएँ बढ़ती हैं, तो रोग की सीमा भी असीम हो जाती है; और कोई रोग है मनुष्य के अंदर, तो लोभ का रोग हैंघर में बहुत सारी ऐसी सामग्री है जिसे आपने वर्षों से नहीं देखा, फिर भी यदि बाजार में कम कीमत में मिल जाए तो ले लो, काम में आयेगीं यही लोभ की वृत्ति हैं।
भो ज्ञानी आत्माओ ! परिग्रह के सद्भाव में भी तू निग्रंथ बन सकता हैं परिग्रही कभी निज शुद्धात्मा में लीन नहीं होता हैं हे मुनिराज ! ममत्व के बिना तुम्हारा आशीर्वाद का हाथ भी नहीं उठतां जो आशीर्वाद दिया जा रहा है, वह भी अनुराग हैं परन्तु दृष्टि यह है कि जीव धर्म से जुड़ा रहे, धर्म-वृद्धि हों हे प्रभु! जब तुम निज में होते हो, तो पर के धर्म का भी ध्यान नहीं होता है और जब तुम पर-धर्म को दृष्टि में रखते हो, तब तुम्हारा शुद्ध- उपयोग का निज-धर्म नहीं होता देखो योगी को जब आशीर्वाद देने में राग होता है तो अहो भोगियो ! घर को बसाने में तुम्हें वीतराग कैसे होता है ? ऐसा कहकर तू अपनी वृत्ति को स्वच्छंद बनाना चाहता हैं जिस शासन ने राग को पुद्गल कह दिया हो, उस शासन में पर-पदार्थ को आत्म-तत्त्व कैसे कहा जा सकता है ? राग जो पुद्गल है, वह कषाय- परिणति की अपेक्षा से कहा है, पर वास्तव में राग पुद्गल का धर्म नहीं; राग जीव की विभाव- अवस्था, विभाव - परिणमन हैं यह विभाव - परिणति पुद्गल-धर्म के संयोग के कारण हो रही हैं इसलिए, जैसे वस्त्र से मेरा ममत्व नहीं, ऐसे भोजन से मेरा ममत्व नहीं वस्त्र भी पहन रहा है, भोजन भी कर रहा है और फिर भी ममत्व से रहित हो रहा है ?
भो ज्ञानी ! इस जीव के सामने जैसा द्रव्य आता है, उस जीव के ज्ञान का परिणमन वैसा होता है, क्योंकि रागियों, भोगियों को देखोगे, उनके पास बैठोगे तो नियम से तुम्हारी दशा वैसी ही होगीं हमारी जिनवाणी में लिखा है कि जिस जीव ने जैनेश्वरी दीक्षा ले ली हो, उस जीव से कहा गया कि तुम युवकों के पास मत बैठों जब युवकों के पास बैठने से मना किया है, तो युवतियों के पास बैठने को कैसे कह देंगे? अब सोचो, परिग्रह के साथ चौबीस घंटे तुम रहो और उसी को तुम दिन भर देखो, तो बताओ कौन-सा ध्यान
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