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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 320 of 583 विराजमान हैं एक सौ अड़तालीस तो मुख्य हैं, इनके भेद प्रभेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं उनके बीच में रहकर भी मैं अपनी प्रभुत्व-सत्ता को नहीं भूलता हूँ, यही मेरी सर्वज्ञ शक्ति हैं
मनीषियों! नौवीं शक्ति, सर्वदर्शित्व शक्ति कहती है कि त्रैकालिक द्रव्यों पर दृष्टि डालकर निजद्रव्य की दृष्टि को मत खो बैठनां इससे बड़ा कोई भेदविज्ञान नहीं हैं यह संयोग-संबंध सुहावने मिलेंगे, इनमें भूल मत जाना, क्योंकि संसार में रुलाने वाला कोई है तो पुण्य का फल है, पुण्य नहीं चक्रवर्ती आदि की विभूति अभ्युदय सुख है और सिद्धत्व की प्राप्ति, अरहंत अवस्था की प्राप्ति यह सब निःश्रेयस - सुख हैं सम्यकदृष्टिजीव का पुण्य निःश्रेयसरूप फलित होता है और मिथ्यादृष्टि का पुण्य अभ्युदयरूप फलित होता है, लेकिन अभ्युदय की प्राप्ति होना गलत नहीं है, वह तो नियम से होगी, क्योंकि पुरुषार्थ कम था, इसलिए अभ्युदय नियम से फलित होगां आपकी कोई ताकत नहीं है कि तपस्या करो और विभूति न मिलें आप रोक नहीं सकतें जिसकी तपस्या तीव्र होती है, परंतु तीव्रता में जहाँ मंदता होती है, वहाँ अभ्युदय फलित होता है और जिसकी तपस्या उत्कृष्ट में उत्कृष्ट होती है, वो निःश्रेयस फलरूप फलित होती हैं लेकिन जो आस्रव हो रहा है, उसे कोई टाल नहीं सकतां पुण्य की प्राप्ति का हो जाना यह पुण्य का वेग हैं पुण्य के वेग को सँभालकर पचा जाना, यह ज्ञान का और विवेक का काम है, क्योंकि पुण्य के वेग में अपने आपको परमात्मा समझकर पुण्य को पुण्य नहीं समझतां
अहो! ध्यान रखो, परमात्मा तभी बनोगे, जब पुण्य व पाप दोनों विनश जायेंगें जब तक तीव्र पुण्य का उदय नहीं आयेगा, तब तक परमात्मा नहीं बनोगें आचार्य कुंदकुंददेव ने 'प्रवचनसार जी में स्पष्ट लिखा है- 'पुण्यफला अरिहंता यह औदयिक भाव है और जब उस औदायिक भाव का अभाव होगा, तब ही निर्वाण की प्राप्ति होगी सिद्धत्व की प्राप्ति भी तभी होगी जब भव्यत्व - भाव (पारणामिक - भाव) का भी अभाव होगां अहो ज्ञानियो! अरिहंत-परमेष्ठी को भी पुण्य का क्षय करना पड़ता है, तो फिर तुम्हारे पुण्य की क्या बात है ? तेरहवें - चौदहवें गुणस्थान में पुण्य - प्रकृति का ही क्षय कराया जाता हैं कर्मों की स्थिति को आयुकर्म के बराबर करने के लिए वे केवली - समुद्घात करते हैं
भो ज्ञानी ! जिसे जिनागम पुण्य कहता है, उसे आपने समझा ही नहीं पाँचवें पाप को पाप नहीं, तुम पुण्य कहते हो पाप से लिप्त जीव को पुण्यात्मा कहते हो, तो निग्रंथों को पाप आत्मा कहीं परिग्रह की प्राप्ति और परिग्रह का संचय, यह पुण्य नहीं है, यह पुण्य का फल है और यह निर्ग्रथ-दशा पाप नहीं है और पाप का फल भी नहीं निग्रंथ दशा को प्राप्त करके भी पुण्य का फल ही निहारा तो धिक्कार है तूने कुछ नहीं जानां निग्रंथ - दशा को प्राप्त करके मोक्ष मार्ग को देखना था, परन्तु तुने निर्ग्रथ दशा को प्राप्त करके चक्रवर्ती की विभूति को देख डाला अहो ज्ञानी! निग्रंथ-दशा की उस पावन चर्या को तूने पुण्य पर पटक दिया है
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