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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 316 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 सौधर्म इन्द्र शची के चरण छूकर कहता है कि-अहो ! धिक्कार हो मुझ पापी के लिए, मैं यहीं पड़ा रहूँगा और मेरे देखते-देखते यह पावन-द्रव्य सिद्ध बनने जा रहा है, उस सिद्धस्वरूपी द्रव्य को मेरा नमस्कार हों भो ज्ञानी! जो नारी में माँ को देखे, उसका नाम ही ब्रह्मचारी होता हैं लोक में ऐसा कौन जीवद्रव्य है, जो सिद्धत्व-शक्ति से रहित हैं जिसका तूने उपभोग किया है, उसके सामने जाकर देखना कि तुम कैसे दृष्टि उठा पाते हों हे प्रभु! मैंने अपने भोग का विषय आपको बनाया हैं धिक्कार हो मेरी अशुभ-वृत्ति को अरे ! मुमुक्षु को तो निगोदिया में भी भगवान दिखता है और अज्ञानियों को संतों में असंत दिखते हैं भगवंत-दृष्टि कहती है कि प्रत्येक जीव को समान समझो, वात्सल्य/प्रेम के साथ जिओं यदि तुम यहाँ वात्सल्य से जी पाओगे, तभी एक सिद्ध में अनेक सिद्ध बनकर विराज पाओगें अभ्यास तो करना ही पड़ेगा एकसाथ बैठने कां इसलिए जिन्हें तू अपने भोग का विषय बना रहा है, वे भोग्य नहीं हैं, वे योगी हैं आचार्य भगवान् कह रहे हैं-वेदकर्म का उदय होने पर मोहित परिणाम हो जाते हैं सम्मोहित व्यक्ति न दोष को देखता है, न गुण को, न जाति देखता है, न कुल, न धर्म, न समाज को, न शासन को देखता हैं जो समाज-शासन के डर से छुपे बैठे हैं, उसे संमतभद्र स्वामी ने ब्रह्मचारी नहीं कहां जो स्वशासन से आत्मा पर अनुशासन रखता है, उसका नाम ब्रह्मचारी कहा हैं इसलिए ब्रह्मचर्य के लिए ब्रह्म को समझने की आवश्यकता हैं ब्रह्म अर्थात् आत्मां उस ब्रह्म में जो आचरण है, उसका नाम ब्रह्मचर्य हैं अहो! जड़-द्रव्य की तो इतनी सुरक्षा, और तेरे शरीर के भीतर जो अमूल्य धन निर्मित होता है, उसे तू भोगों की नाली में फेंक देता हैं धिक्कार है तेरे लिए अभी तो ब्रह्मचर्य-व्रत की बात है, ब्रह्मचर्य 'धर्म' की नहीं मनीषियो! संयम की सम्पत्ति किसी पर्याय में अर्जित नहीं की जातीं आपको संयम–सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए मनुष्य-पर्याय में भेजा गया हैं अहो! तुमने इस पर्याय को मोह की मिट्टी में मिला दियां भो ज्ञानी! भूल हो गई है, तो अब भूल नहीं करनां जैसे सेठ विजय और सेठानी विजया ने कियां पति का ब्रह्मचर्य-नियम शुक्लपक्ष का था और पत्नि का कृष्णपक्ष कां माता-पिता को मालूम नहीं थां सुहाग की रात्रि आती है, पत्नि हाथ जोड़ लेती है- स्वामी! क्षमा करना, रात अंधेरी है, मैंने निग्रंथ योगी से ब्रह्मचर्य-नियम लिया हैं शुक्लपक्ष आयेगा, तब हम आपकी इच्छा की पूर्ति करेंगें अहो! ठीक है, आपके व्रत को भंग नहीं करूँगां धन्य हो ऐसे महापुरुष को शुक्लपक्ष आता है, पत्नि श्रृंगार करके पहुँचती है, तो पति हाथ जोड़कर कहता है-बहिन! आपका कृष्णपक्ष का नियम था, तो मैंने भी निग्रंथ योगी (धरती के देवता) से शुक्लपक्ष में ब्रह्मचर्य का नियम लिया हैं इसलिए आप पंद्रह दिन को मेरी भगिनी हो और जैसे मैंने आपके व्रत का निर्वाह कराया था, ऐसे मेरे व्रत का निर्वाह आपको कराना हैं पत्नि चरणों में गिरकर कहती है, प्रभु! एक नारी के तो अनेक पति नहीं होते, पर आप तो दूसरी शादी कर सकते हैं, कुल परंपरा बनी रहेगी पर धन्य हो उस वीर को और एक नारी की दृढ़ता को, कि पति पत्नि, भाई-बहिन का जीवन जी रहे हैं वह धन्य हैं Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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