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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 315 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
भो मनीषियो! भगवान् महावीर स्वामी की दिव्यदेशना के आधार पर आचार्य भगवान् अमृतचंद्र स्वामी संकेत दे रहे हैं कि, हे मानव! जीवन में तेरी कीमत शील से हैं मानव-जीवन में यदि तेज है, तो उसका नाम ब्रह्म हैं उस ब्रह्म को जिसने खो दिया है, ध्यान रखना, वह चलता-फिरता मुर्दा हैं लंकेश तो विद्वान् था, अर्धचक्री भी था, लेकिन कुशील की भूल ने उसके जीवन को बर्बाद कर दियां एक काम-बाण के पीछे जिसने कुशील–सेवन किया है, उसके पास न सत्य है, न अचौर्य है, न अहिंसा है, बल्कि उसके चारों कषाय और पाँचों पाप विराजे हैं, क्योंकि संसार में जितना अनाचार है सब कुशील व्यक्ति के पास हैं
भो ज्ञानी! वीतराग-शासन में ज्ञान से यश तो कह दिया, पर ज्ञान से पूजा प्राप्त नहीं होतीं श्रद्धान से देवत्व की प्राप्ति होती है, ज्ञान से कीर्ति फैलती है, संयम से चारित्र की वृद्धि होती है और जहाँ तीनों होते हैं वहाँ शिवत्व की प्राप्ति होती हैं अहो ज्ञानी आत्माओ! तुम संयमी बन सको या नहीं बन सको, लेकिन संयम का अपमान कभी नहीं कर देना, क्योंकि जब भी मुक्ति मिलेगी तो संयम से ही जिस भूमि (विदिशा) पर आप विराजे हो, वह आज चारित्र के माध्यम से पूजी जा रही हैं ध्यान रखना, चारित्र तभी पुजता है, जब तेरह प्रकार का चारित्र विराज जाता हैं जैनदर्शन के महान सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य भगवान् नेमिचन्द्र स्वामी, जिन्होंने गोमटेश बाहुबली स्वामी के श्रीकर्णों में सूरिमंत्र दिया, ऐसे महान धुरंधर दिगम्बर आचार्य कितनी गहरी बात कह रहे हैं:
वेदस्सुदीरणाए परिणामस्स य हवेज्ज संमोहों संमोहेण ण जाणदि जीवो, हि गुणं व दोसं वां 272 गो.(जी.कां.)
जब वेद-कर्म की उदीरणा सताती है, परिणाम सम्मोहित होते हैं, तब स्वयं के शरीर को देखकर व्यक्ति की वासनायें भड़कती हैं अपने ही शरीर के अवयवों को देखकर स्वयं ही अपने आप में मोहित हो रहा हैं अहो चर्मकार! चमड़ी को देखकर रीझ रहा हैं अरे! जब तुम्हारी भोग-भावना का उदभव हो तो उसमें अशुचि-भावना को विराजमान कर लिया करों इस कृमिकुल से भरे माँस के पिण्ड को देखं भोग-भावना में जीनेवाली आत्माओ! जब संयम धारण करने की बात आये तो भी कहना कि मैं भगवती-आत्मा हूँ और जब नारी के यहाँ जाने के भाव आयें, तब भी कहना कि मैं भी भगवान् तू भी भगवान् जिस समय अपने भगवान् का नाश करने जा रहे हो और अनन्त भगवन्त नौ-कोटि जीवों की हत्या करने के भाव जब बन रहे हों, तब भी कहना हे समयसार, वीतराग वाणी! मेरे मस्तिष्क में विराजमान हो जाओं हे भोगी! उस समय सोचना कि भोग्या भी तो भगवती-आत्मा है, सिद्ध बनने वाली, मेरे से पहले भगवान् बनकर जा सकती हैं याद करो
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