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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 311 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
भो ज्ञानी! लोग तीर्थों में जाते हैं, मंदिर के दर्शन करने आते हैं, परंतु धिक्कार हो उनकी उस परिणति को वहाँ पर भी दूसरों की जेब को देख लेते हैं सोचना, एक जीव कर्म का क्षय करने के लिए आया है, एक जीव कर्म बंध कर रहा हैं अहो! उसे पाप से भी डर नहीं लगता और परमात्मा से भी डर नहीं लगतां ध्यान रखना, यदि आपका बेटा व्यापार कर रहा है तो आपका कर्त्तव्य बनता है कि उससे पूछ लेना, बेटा ! तुम किसी के रक्त को निचोड़कर द्रव्य तो नहीं लाये हो? मुझे ऐसा दाना मत खिला देना, क्योंकि मैंने अपने जीवन में दूध ही दूध पिया है, किसी का खून नहीं पियां बेटा! गरीबी की रोटी खा लेना, लेकिन पर द्रव्य का हरण करके नीचे मत गिर जाना; क्योंकि जितने छल छिद्र / कपट हैं, वह नियम से प्रकट होते हैं माँ जिनवाणी तो आप पर करुणा कर रही है कि कम से कम हम पाप छोड़ पायें या नहीं छोड़ पायें, पर पाप का ज्ञान तो हो रहा हैं अहो! जिनके आप उपासक हैं, वे साधु तीन-तीन बार शुद्धि बुलवाते हैं, पूछते हैं, विश्वास रखते हैं कि मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और दान की शुद्धि हैं यदि आहार व जल अशुद्ध है, पिण्ड अशुद्ध है, तो ध्यान रखना - ऐसे अशुभ दाने को किसी साधक के हाथ में मत रख देनां आपको मालूम है कि राजपिंड का निषेध हैं यह जो राज्यकर से धन आता है, उसका आहार कभी मुनिराज को नहीं दिया जाता है; क्योंकि कर सबका हैं जितने कतलखाने होंगे, उसका भी "कर" शासन में आता हैं घर में आपको मालूम है कि अमुक सदस्य गलत काम कर रहा, आपने दृष्टि फेर ली और जानते भी हो कि हमारे घर में ऐसा द्रव्य आया है तो ध्यान रखो, घर के बुजुर्ग को भी उतना ही पाप होगा, क्योंकि तुम्हारे बैठे-बैठे तुम्हारी संतान ने ऐसा कियां जो सम्पत्ति सदाचार से समीचीन बुद्धिपूर्वक अर्जित की जाती है, वह गृहस्थों की सम्पत्ति कहलाती हैं।
भो ज्ञानी ! लाखों-करोड़ों जीवों के विधात से अर्जित धन कभी भी तुमको धन्य नहीं करायेगां अति वैभव / विलासता में दया सूख जाती हैं मनीषियो ! अशुभ परिणति में कभी संतुष्ट मत होनां भले तुमसे दोष हो रहे हों, लेकिन दोष को दोष ही मानना, कहीं यह स्वीकार मत कर लेना कि जीवन जीना है तो कुछ भी करना होगां अहो! जीवन तो चिड़िया भी जीती है, श्वान भी जीता हैं भो ज्ञानी! वर्तमान के ही सुख को मत देखो, भविष्य को भी निहारों देखो किसान भोग बाद में करता है, पहले बीज को बोने हेतु सुरक्षित रख देता हैं ऐसे ही सम्यक्दृष्टि ज्ञानीजीव पुण्य के भोग को बाद में भोगता है, पहले पुण्य के द्रव्य को संचित करके रख लेता कि भविष्य भी तो देखना हैं अतः अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि पर द्रव्य को लोष्ठवत् छोड़ दो, ग्रहण मत करो, क्योंकि धन ग्यारहवाँ प्राण है उसका हरण मत करों मैं तो आपसे कहूँगा कि ऐसे स्थानों पर अपने द्रव्य को ब्याज पर भी मत देना, सहयोग भी मत देना, जमा भी मत करनां ध्यान रखना, वह पैसा कहाँ जा रहा है? मुर्गीपालन, मछली पालन केन्द्र खुल रहे हैं, वहीं तो तुम्हारा धन जा रहा हैं अरे! ऐसा क्यों नहीं सोचते कि किसी गरीब परिवार को सहयोग कर दें आगम में समदत्ती भी एक दान है, अर्थात् अपने साधर्मी को अपने समान बना लेनां बगल में एक मंदिर ऐसा भी खड़ा हुआ है जिसमें दीवाल नीचे गिर रही हैं क्या Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
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