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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 303 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
मनीषियो! अल्प उपसर्ग को देखकर आप आँखों में नीर भर लाते हों उनसे पूछो जिन्होंने सात दिनों तक भोजन-पानी ही नहीं, अपने प्राणों से ममत्वभाव भी छोड़ दियां प्राणों को छोड़कर जो चलता है, वही साधना के जीवन को सार्थक कर पाता हैं जहाँ प्राणों का राग है, वहाँ संयम के प्रति अनुराग संभव नहीं होता धन्य हो उन सात-सौ योगियों कों वे निग्रंथ योगी कह रहे थे कि शील की बाड़ी को कोई उखाड़कर फेंक नहीं सकतां शील की बाड़ी के कारण ही अनन्त- वीर्य-शक्ति काम कर रही थीं
अहो आत्मन्! इस शरीर की वेदना को देखकर तू व्यथित मत हो जानां यह सत्य है कि तेरे अन्तरंग में अनन्तबल विराजा है, तू तो सिद्ध बनने वाला है, कर्म-शत्रु को उखाड़ कर फेंकने वाला यह सत्य रुकता नहीं है, सत्य बहता रहता हैं जो प्रवाहमान होता है, पर बदलता न हो, उसी का नाम सत्य होता हैं इसीलिये द्रव्य सत्य होता है, पर्याय असत्य होती है, क्योंकि द्रव्य बदलता नहीं है, पर्याय बदलती है और जो बदलती है, वह झूठी होती हैं इसलिये सत्य शरीर नहीं, सत्य तो आत्मा ही है, जो हर समय साथ रहती है, कभी बदलती भी नहीं है और कभी बदला भी नहीं लेती हैं आचार्य भगवान् कह रहे हैं कि सत्य सत्ता को समझो और नव कोटि से झूठ को छोड़ दों फिर भी यदि गृहस्थ अवस्था में आप अपनी आजीविका नहीं चला पा रहे हो, तो ऐसा झूठ मत बोलना जिससे दूसरे के प्राणों का घात हों
भो ज्ञानी! व्यर्थ में असत्य भी मत बोलनां कभी-कभी निष्प्रयोजन झूठ बोलते हों इसे जिनवाणी अनर्थदण्ड कहती हैं यह ध्यान रखना कि वाणी के द्वारा व्यक्ति का व्यक्तित्व सामने खड़ा हो जाता हैं एक नेत्रहीन व्यक्ति मार्ग में बैठा हैं वहाँ एक सिपाही उससे पूछता है-क्यों अंधे! क्या यहाँ से सम्राट निकला? थोड़ी देर बाद सेनापति आते हैं क्यों साधुजी! क्या यहाँ से महाराज निकले? मंत्री आते हैं क्यों, आपको मालूम यहाँ से राजा निकले हैं? जब राजा स्वयं आता है-सूरदासजी! आप यहाँ कब से विराजे हैं क्या यहाँ से मंत्रीजी, सेनापति आदि निकले हैं? अहो राजन! अहोभाग्य कि आप पधारे हैं कुछ क्षण पहले आपका सिपाही निकला थां इसके उपरान्त सेनापति निकला और कुछ ही क्षण पूर्व मंत्रीजी निकल चुके हैं अरे! आपको तो दिखता ही नहीं है, फिर आपने जाना कैसे? राजन्! क्षमा करनां नेत्र फूट जायें तो कोई दिक्कत नहीं, लेकिन प्रज्ञा का नेत्र नहीं फूटना चाहियें राजन! हमने आँखों से तो नहीं देखा, पर कानों से जरूर देख लियां राजन! कोयल और कौए की पहचान वर्ण से नहीं, वाणी से होती हैं हमने आपकी वाणी के माध्यम से आपको पहचान लियां जब आप पधारे, तो आपको क्या मैं अंधा नहीं दिखा? अन्धा तो था, फिर भी आपने कहा कि सूरदासजी, आप यहाँ कब से विराजे हैं? यह सम्राट की भाषा थीं
भो ज्ञानी! वाणी आपके भावों को प्रकट कर देती हैं आचार्य अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि आप बोलते तो रहना, परन्तु तौल-तौल के बोलनां हे मुनिराज! तुम चिन्ता मत करों समिति की तराजू पर तौल
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