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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 282 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
करना ही होगां जाओ, यह हँसिया ले जाओं देखो, हीरे-मोती की दुकान पर बैठने वाले बेटों के हाथ में जब मजदूरी के लिये हँसिया पकड़ाया गया होगा, तब उनके हृदय की वेदना क्या हुई होगी? परन्तु ज्ञानी कहता है कि यह सब कुछ भी होता हैं भाभी ने कहा-लाला! आप को भोजन तभी दिया जाएगा, पहले सेठजी की घास लेकर आओं चल दियां लघु भ्राता ने जब घास को खोद के गट्ठा बना लिया और देखा कि हँसिया गुम गया, सोचता है-कोई नहीं मानेगा कि हँसियां गुम गया- सब यही कहेंगे कि हँसिया बेचकर कुछ खाकर आ गयें दृष्टि डालता है, एक नाग-नागिन के ऊपर हँसिया रखा हुआ हैं बोला-हे सर्पराज! या तो हँसिया दे दो या मुझे डस लों आपके डसने से मुझे पीड़ा नहीं होगी, लेकिन हँसिया विहीन होकर घर मैं जाऊँगा, तो जो पीड़ा होगी वो मेरा हृदय सहन नहीं कर पायेगां वह साँप नहीं, धरणेंद्रदेव थां कहता है-भगवान् पारस प्रभु की पूजा करों आपके पिताजी ने व्रत का अपमान किया थां मनीषियो! व्रत का अपमान करने मात्र से जब इतना घात हो गया तो जो व्रती का अपमान करेगा उसका कितना घात होगा? इसलिए जीवन में उस गली से नहीं चलना, जिस गली में फिसलकर गिर जाओं कर्म-पंक तो कहता है कि मेरा काम तो गिराना हैं जल से पंक उत्पन्न होता है, जल से ही पंक धुलता हैं चित्त से पाप होता है और चित्त से ही पाप धुलता हैं व्रत की अवहेलना की थी पिताश्री ने, और भीख माँगनी पड़ी पुत्रों कों हे पुत्रो! तुम्हारा भी पाप का उदय था कि ऐसे पिता के घर तुम जन्मे हों जब पुनः रविव्रत किया और माता-पिता को समाचार भेज दिया कि आप भी रविव्रत करों जिसने अवहेलना की थी, आज वह दो उपवास कर रहा हैं मालूम चला, कुछ ही दिन में ऐसा पलड़ा पलटा कि धनी हुआं ऐसा रविव्रत की कथा में लिखा हैं
भो ज्ञानी! यह सब कुछ भी होता हैं ज्ञानी उसमें भी न खिलता है और न दुःखित होतां ज्ञानी विपत्तियों में कूलते नहीं और सम्पदाओं में कभी फूलते नहीं कौतुहली वे होते हैं, जो अज्ञानी होते हैं वैभव था, ठीक है; चला गया, ठीक हैं द्रव्य अपने स्वभाव में है, गया कहाँ? बोले-मर गएं कहाँ मर गए? सैंतालीस शक्तियो में पहली शक्ति जीवत्व-शक्ति हैं मनीषियों! जीवत्व-सत्ता सर्वत्र है, सम्पूर्ण पदार्थों में सर्वव्यापी हैं इसलिए ध्यान रखना, कभी मत सोचना, कि कौन है किसका है? किसको कहूँ? क्या कहँ? किस लिए कहँ? कैसा कहूँ? किससे कहूँ? अरे! निज ने कहा, निज को कहा, निज से कहा, निज के लिए कहा, निज में कहा, तो सत्ता हैं अहो! शुद्धात्म-तत्त्व की चर्चायें इतनी मधुर हैं तो कैसे कहें कि अध्यात्म में आनन्द नहीं होता? जो चर्चाओं का आनन्द लूट रहा है, भो चेतन्य! एक दिन ब्रह्मचर्य का आनंद भी लूटेगां इसलिए अमृतचंद्र स्वामी कह रहे कि हैं-अब तुम जीवत्व-सत्ता को समझ कर यह भी नहीं कहना कि यह भूखा है, यह प्यासा है, इसको अपना तन दे दूँ , इसको अपना रक्त दे दूँ पर्याय नष्ट होगी, पर सत्ता त्रैकालिक हैं तू कभी नहीं मरेगां
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