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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 281 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 राग-रंग में जा रहा है, पर चैतन्य के ढंग को समझ ही नहीं पा रहा हैं अहो जीव! तेरा वास्तविक स्वरूप तो अरस, अरूपी, अगंध और अवक्तव्य हैं तू पुद्गल पर पुद्गल रगड़कर अपने आप को कहता है- 'मैं ही चमकता हूँ मनीषियो ! यदि एक बार भी शुद्धात्म-तत्त्व की चर्चा कर लेते, तो फिर तू व्यर्थ की चर्चा नहीं करतां तुम नाम संज्ञाओं में पड़े हों संज्ञाओं को छोड़ों इसलिए ध्यान से समझना चार संज्ञाओं की सीमा है, पर एक संज्ञा असीम हैं चार संज्ञाएं जीवत्व-भाव से समन्वित हैं, जबकि नाम वाली संज्ञा जीवत्व-भाव से रहित हैं आहार, भय, मैथुन, परिग्रह यह तो जीव का विकारी- भाव हैं 'नाम' पुद्गल है, इसमें जीवत्व-भाव लेशमात्र भी नहीं हैं आहार संज्ञा में आसातावेदनीय कर्म की उदीरणा जब आती है, तब भूख लगती हैं अहो! देखना संसार की दशा, अशुभ कर्म से भूख लगती है और शुभ कर्म से भोजन मिलता हैं लाभ अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से लाभ होता है और साता के उदय से स्वाद आता हैं साता नहीं है तो कितने ही पकवान रख देना, भोजन में कड़वाहट रहेगी, स्वाद ही नहीं आएगा और लाभ अन्तराय कर्म का क्षयोपशम नहीं है तो दुनियाँ में घूम लेना, तुम्हें खाने को नहीं मिलेगा लाभ अन्तराय का क्षयोपशम है तो एक रोकेगा, दूसरा हाथ पकड़ लेगां यह संसार की दशा है, यह सब भी होता हैं भो ज्ञानी! जब आग लगे तो उसको बुझाओ मत, वह स्वयं बुझ जाएगी बुझाने का पुरुषार्थ ज्यादा करोगे तो भड़क जाएगीं ध्यान रखना, लकड़ियाँ मत डालना, बुझ जाएगीं आपने पानी फेंका और यदि अशुभ कर्म का उदय होगा, तो वह घी का काम करेगा अहो! पत्नी कहने लगी- स्वामी निर्ग्रथ योगी के चरणों में जाकर मैंने रविव्रत स्वीकार किया हैं छप्पन कोटी दीनार का स्वामी अहंकार में भरकर कहता है- 'व्रत वे करें, जो घास खोदकर सिर पर रखें व्रत - संयम वह करें जिनके घर में खाने को नहीं हैं अहंकार में आकर पत्नी को व्रत नहीं करने दियां एक दिन स्वामी शयनकक्ष में विश्राम कर रहा था, अग्नि लगी, एक क्षण में सब विलय को प्राप्त हो गयां देखते ही देखते करोडपति बेचारा सडकपति हो गयां सातों बेटे बिलख रहे हैं अहो! संसार की दशा, जिसको दूध के कटोरे भर-भर कर सामने रखे जाते थे, वह आज चुल्लू भर पानी को रो रहे हैं जिनके यहाँ अनेक अनुचर काम करते थे, वह आज किंकर बनकर गलियों में घूमने लगें सात भाइयों को एक मित्र ने काम पर रख लिया, लाखों रुपए दिये, पर सब खाक हो गएं मनीषियो ! कर्म के विपाक में संयोग भी काम नहीं करतां संयोग भी वहीं सहयोग करता है, जहाँ स्वयं को सुकृत का संयोग हों एक बार मैंने आपको बताया था कि आचार्य महावीरकीर्ति महाराज सम्मेद शिखर पर ध्यान कर रहे थें एक भील भाला ले कर मारने आया थां जैसे ही उसने मुनि की ध्यान - मुद्रा को देखा और भाव बदल गयां भाला फिक गया और चरणों में भाल टिक गयां जिसका पुण्य भला है, उसके चरणों में भाल गिरते हैं और जिसका पुण्य भला नहीं है, उनके चरणों में भाले ही गिरते हैं इसलिये भला करना चाहते हो तो पुण्य के भाव करो, अशुभ से बचों मित्र ने सातों भाइयों को सोने की दुकान पर बिठाया, कुछ नहीं हुआ अन्त में कहा, भाई ! अब कुछ तो Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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