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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 259 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 शिष्यों ने सभी बातें नोट कर ली जैसे ही वह मार्ग में चले कि वहाँ कुछ महाजन लोग श्मशान घाट जा रहे थे तो वे भी उसी ओर चल दिये, क्योंकि विद्या थी, परन्तु बुद्धि नहीं थीं रास्ते में भूख सता रही थी, लोगों ने उन्हें मालपूये खाने को दे दियें उन्होंने सोचा, डायरी देख लो कि क्या लिखा है? लिखा था, जिसमें छिद्र हों उसे छोड़ देना, सो मालपूये छिद्रों का पिन्ड ही होता हैं उन्होंने उनको छोड़ दिया और भूखे ही रह गयें चलते-चलते नदी मिली, पर पार करने हेतु नौका नहीं थीं अतः नदी में जैसे ही उतरे कि एक मित्र डूबने लगां उन्होंने कहा-डायरी खोलो, क्या करना है? भो ज्ञानी! हर क्षेत्र में डायरी नहीं खोली जाती, विवेक भी खोला जाता हैं उसमें लिखा था-डूबते हुए को सहारा दे देनां भैया! डूबते हुए को ऐसा सहारा दिया कि बेचारा सर्वांग डूब गयां गये थे चार, बचे तीनं अब उनके पास एक सूत्र बचा कि कोई दे तो बाँट लेना लेकिन ठीक से नहीं समझ पाये कि बाँटें कैसे? क्योंकि 'बाँटे' के बहुत अर्थ होते हैं एक बाँट लेना याने विभाग कर लेना, दूसरा बांटना याने पीस देनां उनके पास बुद्धि तो थी नहीं, आगे चलकर रोटी खाने को दी, उन्होंने डायरी खोली और उन्होंने कहा, भैया! पहले बांटों अहो! बुद्धि के अभाव में विद्या कभी सफल नहीं होती हैं विद्याहीन-बुद्धिमान सफल हो सकता है, किन्तु बुद्धिहीन विद्वान् कभी भी सफल नहीं होतें आपके पास विद्या है, पर आपको मालूम नहीं है कि हमें किस समय, क्या करना है? किसी के घर में शोक था और आप जाकर श्लोक सुनाने लगें। भो ज्ञानी! प्रज्ञा कहती है कि कुशलता को हासिल करों मोक्षमार्ग तो पूरा कुशलता का ही मार्ग है, अकुशलता का उसमें स्थान है ही नहीं अप्रमत्त-अवस्था प्रमादरहित वृत्ति हैंजहाँ प्रमाद है, वहाँ कुशलता नहीं हैं इसलिए आगम में कहा है 'कुशलेषु अनादरा प्रमाद': कुशल-क्रिया में अनादर-भाव का होना, प्रमाद कहलाता हैं अतः पूजा भी करना तो कुशलता से, ताकि अकुशल भी कुशल हो जाएं किसी को धर्म के प्रति अनास्था न हो, वही कुशलता हैं हमारी किसी भी वृत्ति से एक व्यक्ति के भाव धर्म से विमुख हो रहे हैं, पंचपरमेष्ठी से हट रहे हैं, तो आपने बहुत बड़ा अनर्थ कर डालां आचार्य भगवान् कुंदकुंद स्वामी यही तो कह रहे हैं कानों का सुना भूल जाओगे, पर जो दृष्टिपटल पर आया है वो अंदर अमिट हो गया हैं इसलिए जिनशासन में सवा महिने के बालक को सबसे पहले अरहंतदेव की प्रतिमा के दर्शन कराये जाते हैं कि, बेटा! तुम सुनकर तो समझ नहीं पाओगे, लेकिन तुम देख लो कि वीतरागी भगवान् ऐसे होते हैं अहो! तुम्हारी शुभ-वृत्ति देख दूसरे की दृष्टि सम्यक् हो जाये अथवा अशुभवृत्ति देखकर दूसरे की दृष्टि विपरीत हो जायें मिथ्यादृष्टिजीव जिनबिम्ब को देखकर सम्यक्त्व को प्राप्त कर रहा हैं वह बिम्ब दो प्रकार का है-चैतन्य जिनबिम्ब और अचेतन जिनबिम्ब है, अचेतन-जिनबिम्ब-अरहंतप्रतिमा और चैतन्य जिनबिम्ब हैं आचार्य, उपाध्याय, साधुं समवसरण में विराजमान अरहंतदेव को देखकर ही तो कितने तिर्यचों ने सम्यक्त्व को प्राप्त किया हैं Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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