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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज
Page 238 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 "जिन देशना की पात्रता, अष्टमूलगुण की धारणा"
यानि तु पुनर्भवेयुः कालोच्छिन्नत्रसाणि शुष्काणिं भजतस्तान्यपि हिंसा विशिष्टरागादिरूपा स्यात्।
अन्वयार्थः तु पुनः = और फिरं यानि शुष्काणि = जो पांच उदुम्बर फल सूखे हुएं कालोच्छिन्नत्रसाणि = काल पाकर त्रसजीवों से रहितं भवेयुः= हो जावें तान्यपि = उनको भी भजतः =भक्षण करनेवाले के विशिष्टरागादिरूपा = विशेषरागादिरूपं हिंसा स्यात = हिंसा होती हैं
अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवयं जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः 74
अन्वयार्थः अनिष्टदुस्तरदुरितायतनानि = दुःखदायक दुस्तर और पापों के स्थानं अमूनि अष्टौ = इन आठ पदार्थों कों परिवर्ण्य = परित्याग करके शुद्धधियः = निर्मल बुद्धिवाले पुरुषं जिन-धर्मदेशनायाः = जिनधर्म के उपदेश के पात्राणि भवन्ति = पात्र होते हैं
मनीषियो! अंतिम तीर्थेश भगवान महावीर स्वामी की पावन पीयूष देशना हम सभी सुन रहे हैं आचार्य भगवान् अमृतचंद्र स्वामी ने बड़ा अच्छा सूत्र दियां राग की दशा कितनी विचित्र है कि बंध को समझता हुआ भी बंध की क्रियाओं को बंद नहीं कर पा रहा हैं अहो! बाहरी भावों पर जिसकी दृष्टि है, (भाव यानि पदार्थ और भाव यानि परिणाम) वह पर-भावों से हटना नहीं चाहता, पर भगवान बनना चाहता हैं लेकिन जब भी भगवान् बननेवाले होंगे, तब आपको परभावों से हटना ही होगां अज्ञ प्राणी जब तक पर-द्रव्य और निज-द्रव्य में भेद नहीं कर पा रहा है, तब तक भेद-दृष्टि नहीं बनेगी, क्योंकि पहले भेदविज्ञान होता है, उसके बाद अभेद-रत्नत्रय-धर्म होता हैं जो भेदविज्ञान के अभाव में रत्नत्रय-धर्म की सिद्धि करना चाहता है, वह तो अग्नि में कमल-वन को देखना चाहता हैं मनीषियो! भोगों की अग्नि में झुलसक तुम शुद्ध-आत्मा के वेदन/अनुभव करना चाहते हो, यह तीनकाल में संभव नहीं हैं ये भोग उन रिश्तदारों के समान हैं, जो आते
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