SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 222 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 भो ज्ञानी! मत करो किसी से ग्लानिं अहो! जिस पड़ौसी से आप ग्लानि कर रहे हो, यदि उसकी भवितव्यता कहीं निर्मल हो गई, तो वह जीव आयु पूरी करके तुम्हारे घर में पुत्र बनकर उत्पन्न हो गया, तो बेटा! -बेटा! चिल्लाओगे, फिर नहीं कहोगे पड़ौसी इसलिए जीव से भी राग नहीं होता, क्योंकि जब चला जाता है तो कुछ नहीं कर पाते हो और पर्याय से भी राग नहीं झलकता, क्योंकि यदि पर्याय से राग होता तो तुम जलाने क्यों जाते हो ? अहो! राग से राग है यानि स्वार्थ से राग है; क्योंकि जब तक तुम्हारी किसी से बन रही है, तब तक मेरे-मेरे कहते हों इसलिए जुगुप्सा भी मदिरा हैं भैया! हँसना भी बड़ी कषाय हैं आज तक जितने भी फँसे, सब हँसने से ही तो फँसें हँसी- हँसी में ही तो कह दिया था कि अंधो की संतान अंधी होती हैं बस, महाभारत हो गयां भो ज्ञानी! ज्यादा हँसी भी मत किया करों हास्य-कर्म का बंध तुम हँसते-हँसते ही कर लेते हों इसलिए विवेक से सुनना कि हँसी-मजाक भी अच्छा नहीं हैं भो ज्ञानी! ध्यान रखना, क्षेत्र अशुभ नहीं होता, काल अशुभ नहीं होता, द्रव्य अशुभ नहीं होता और क्षेत्र दुःख नहीं देता, काल दुःख नहीं देता, द्रव्य दुःख नहीं देतां देखो उस क्षण की पर्याय को, कैसे कहें कि काल अशुभ है, क्योंकि उसी काल में विभीषण का राज्य अभिषेक हो रहा है और उसी काल में लंकेश के दो टुकड़े हो रहे हैं हम किस काल को शुभ कहें ? राम का जयनाद हो रहा है अयोध्या में और उसी काल में लंका में हाहाकार हो रहा हैं उस समय कौन मंगल, कौन अमंगल ? जिसका उस समय पुण्य है, उसका मंगल है और जिसका पुण्य क्षीण है, उसके लिए अमंगल हैं एक ही भवन में एक ही मंजिल पर मंगलाचरण हो रहे हैं, उसी मंजिल पर दूसरे की अर्थी निकल रही हैं क्षेत्र को मंगल कहूँ कि अमंगल कहूँ? कैसे कहूँ कि द्रव्य अशुभ है? चाँदनी एक को आनंद दे रही है, वही चांदनी चकवी को रुला रही हैं वास्तविकता को समझते जाओं ज्ञानी हेय को भी ज्ञेय देखता है और उपादेय को भी ज्ञेय देखता हैं जिसकी ज्ञाता-दृष्टा-दृष्टि है, वही संत-दृष्टि हैं इसलिए मनीषियों! विवेक से काम करो, वर्तमान को निहारों इसमें मत जाओ कि यह चले गए, वह आएं यह तो प्रकृति का स्वभाव हैं भो ज्ञानी! मोक्षमार्ग निष्ठुर ही होता हैं राग के प्रति जब तक निष्ठुर नहीं बनोगे, तब तक वीतरागी संज्ञा आनेवाली नहीं हैं इसलिए संयम की छतरी के अलावा कोई अन्य छतरी काम नहीं करेगी मात्र जिनवाणी के छींटे ही काम की तपन को समाप्त कर सकते हैं, चंदन के छींटे नहीं आज चक्रवर्ती भरतेश खड़े-खड़े आँसू टपका रहे थे, क्यों ? आज यह हाथ-हाथ, नहीं है और मस्तिष्क, मस्तिष्क नहीं बचा; क्योंकि आज धरती के देवता मुझे नहीं मिलें देखो भाग्य-दो चारण-ऋद्धिधारी मुनिराज आकाश से उतर आए और चक्रवर्ती का हृदय गद्गद् हो गयां आँखो के जल से चरण पखार लिएं यह अंतरंग में भक्ति थीं इसलिए कम-से-कम इतने दरिद्र मत बनना कि नमक भी तुम्हारे घर में शुद्ध न हों मनीषियो! ध्यान से सुनना, जो नमक समुद्र से आ रहा है, उस नमक का कौन-से जैनी ने जाकर पानी छाना, उसकी क्यारियों को धोयां आचार्यश्री एक बार Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy