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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 220 of 583 ISBN # 81-7628-131-3
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मुमुक्षु जीवों को वही पूछना चाहिए, वही जानना चाहिए है, जिससे अविद्या का विनाश हों मनीषियो ! ध्यान रखना कि काम, भोग, बंध की प्रदर्शनी को तूने अनादि से देखा है, अनादि से सुना है और अनादि से जाना हैं यदि वही प्रदर्शनी देखने के भाव तुमने रखे तो इस पर्याय को प्राप्त करना या न करना समान हैं भगवान् पूज्यपाद स्वामी कह रहे हैं जितना भ्रम है सब अविद्या का ही हैं विद्या यानि कैवल्यज्ञानज्योतिं हे प्रभु! आपकी विद्या कैवल्यज्योति है, जिसमें लोकालोक के चराचर पदार्थ दर्पण के समान प्रतिबिम्बित होते हैं वही विद्या परमज्ञान हैं भो ज्ञानी ! परमज्ञान ही महान् है और वह परमज्ञान योगियों को स्वात्मानुभव से उत्पन्न हो रहा हैं जिसे आप जान रहे हो व जिससे आप जान रहे, वह परमज्ञान नहीं हैं जो आत्मा से उत्पन्न हो रहा है, जो आत्मा को जान रहा है, वही परमज्ञान हैं जो ज्ञान विषयों में जा रहा है और विषयों को बुला रहा है उसे ज्ञान नहीं कहनां वह तो परम अज्ञान हैं इसलिए आचार्य अमृतचंद स्वामी कह रहे हैं कि यह अज्ञानभाव का परिणमन ही हैं कषायभाव और मद्य की सन्निकटता हैं मद्यपायी कभी जननी को पत्नी कहता है, तो कभी पत्नी को भी जननी कहने लगता हैं अहो! रागियों को राग हेय नहीं लगता, वह तो वीतरागियों को ही हेय लगता है; क्योंकि जिसे नशा चढ़ा हुआ है, उसे राग ही अच्छा लगता हैं पिट रहा है, कुट रहा है, फिर भी वहीं जाता हैं राग के वश आप घर में क्या-क्या नहीं सुनते हों कभी आपको उदासता आती है ? उन्मत्त पुरुष की दशा के बारे में उमास्वामी महाराज ने लिखा है कि- 'सदसतोर विशेषाद्यदृच्छोपताब्धेरुन्मत्तवत् (त.सू./ 32 ) क्या सत्य है तथा क्या असत्य है, उन्मत्त कोई विशेषता का ध्यान नहीं रखतां"
भो ज्ञानी ! मल से दूषित बर्तन को पानी से धो लिया जाता है, परंतु यदि दूषित मन को धोने का कोई माध्यम है तो एकमात्र जिनवाणी ही है, दूसरा कोई आलम्बन नहीं हैं परन्तु जिसने जिनवाणी को ही नहीं समझा, उसके मन का मैल धुलनेवाला नहीं हैं मल से मलिन होना कोई पाप नहीं हैं मल तो मुनियों का आभूषण हैं भो ज्ञानी ! शरीर के मल से मलिन का तो मोक्ष हो सकता है, परंतु मन से मलिन का कभी मोक्ष नहीं हो सकतां बाईस परीषहों में एक मल - परीषह भी हैं निर्ग्रथ मुनि स्नान नहीं करते, क्योंकि ब्रह्मचारी सदा शुचिं उनके अस्नान नाम का मूलगुण होता हैं अहो! कितनी निर्मल अहिंसा है कि पानी डालेंगे तो जीव का विघात होगा, पानी बहेगा तो जीव का विघात होगां अंतरंग में कितनी करुणा गूंज रही हैं आप उनके भक्त हो, स्नान नहीं छोड़ सकते तो भो ज्ञानी! कम-से-कम पाप-पंक से तो स्नान मत करों पंक से स्नान करने पर शरीर धुलेगा कि मलिन होगा ? अहो ! पाप-पंक में पड़े ज्ञानियो ! जिनवाणी के नीर में अवगाहन करों नीर से कल्याण नहीं होगा; ज्ञान-नीर की आवश्यकता हैं।
भो ज्ञानी ! अविद्या का नाश करनेवाली परमज्योति को अमृतचंद्र स्वामी ने नमस्कार किया हैं जिस प्रकार अंधकार का नाश ज्योति से होता है, उसी प्रकार अविद्या का नाश भी ज्ञान से ही होता हैं मोह का विगलन भी ज्ञान से ही होता हैं जब तक बलभद्र का विवेक (ज्ञान) नहीं जगा, तब तक नारायण के जीव को
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