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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 22 of 583 ISBN # 81-7628-131-
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"तीन-लोक का नेत्र" लोकत्रयैकनेत्र निरूप्य परमागमं प्रयत्नेनं
अस्माभिरुपोध्रियते विदुषं पुरूषार्थसिद्धयुपयोऽसम् 3 अन्वयार्थ:लोकत्रयैकनेत्र =तीन-लोक संबंधी पदार्थों को प्रकाशित करने में अद्वितीय नेत्रं परमागर्म = उत्कृष्ट जैनागम कों प्रयत्नेन =अनेक प्रकार के उपायों से निरूप्य = जानकर अर्थात् परम्परा जैन सिद्धान्तों के निरूपपूर्वक अस्माभिः =हमारे द्वारा विदुषं =विद्वानों के लिए अयं पुरूषार्थ सिद्धयुपायः यह पुरूषार्थ सिद्धि उपाय नामक ग्रंथं उपाधियते = उद्धार करने में आता हैं
मनीषियो! अंतिम तीर्थेश वर्द्धमान स्वामी के शासन में हम सभी विराजते हैं आचार्य भगवन अमृतचंद्रस्वामी ने बहुत ही अनोखा संकेत दिया हैं यदि जीव के भावों की हिंसा का विनाश हो जाता है तो द्रव्य की हिंसा छूट जाती हैं भावों की हिंसा का हेतु कोई है तो वह एकांतदृष्टि हैं एकांतदृष्टि ही भावहिंसा हैं किसी जीव का वध करो या न करो, यदि आपने तत्त्व के विपरीत श्रद्धान किया है, तो आपने निज भावों का विनाश किया ही हैं जब एकांत-दृष्टि बन जाती है, तो हम एक-दूसरे की सुनना पसंद नहीं करते हैं और उसका परिणाम यह होता है कि, जो मैं सोचता हूँ वही सच हैं आप सोचते हो कि मैं सही हूँ जब दोनों अपने-अपने को सही मानना प्रारंभ कर देते हैं, तो धीरे से एक-दूसरे को गलत कहना भी प्रारंभ कर देते हैं परिणति यह होती है कि धीरे-धीरे तत्त्व-दष्टि शत्र-दृष्टि में बदल जाती हैं फिर परिणाम यह होता है कि हम एक-दूसरे को मारने-पीटने को भी तैयार हो जाते हैं
भो ज्ञानी! आचार्य अमृतचंद स्वामी कह रहे हैं- "विरोधमथनम' स्यादवादशैली विरोध को नष्ट करने वाली हैं स्याद्वाद को समझकर भी विरोध को नहीं छोड़ा तो वह जैनविद्या का ज्ञाता हो ही नहीं सकतां जब मन में ही संकल्प-विकल्प उठते हैं तो वचनों से कहना प्रारंभ होता हैं जब तक मन में था, तब तक तो ठीक था और जब वचन में एकांत आ जाता है तो वहीं पर एक नये पंथ का जन्म हो जाता हैं जहाँ पंथ का जन्म होता है, वहीं संत- स्वभाव का विनाश हो जाता हैं जितनी शक्ति मुझे निज स्वरूप में लगानी थी, उस शक्ति का उपयोग पंथ के गठन में प्रारंभ हो जाता हैं आचार्य अमृतचन्द स्वामी कहते हैं कि 'नय' कोई पहाड़ नहीं हैं नय यानि वक्ता का अभिप्रायं क्योंकि जितने वचन-वाद हैं, उतने ही नयवाद हैं आचार्य सिद्धसेन स्वामी ने
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