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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 217 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
जायेगा, परंतु उष्णता कभी नहीं जलेगी ऐसे ही पर्याय बदलती है, पर्याय नष्ट होती है, लेकिन वीतरागधर्म कभी नष्ट नहीं होता हैं इसीलिए सत्य का कभी विनाश नहीं होता और असत्य का कभी उत्पाद नहीं होता
भो ज्ञानी! आप संसार की किसी पर्याय में जायेंगे तो सुन्दर सुहावने शरीर को प्रदान करानेवाली जो कोई परमउपकारी वस्तु है, उसका नाम मृत्यु हैं आपको मनुष्य-शरीर मिला, मृत्यु सुधर गई, तो देवों का वैक्रियक शरीर प्राप्त कर लोगे, इस सड़े-गले शरीर में नहीं रहना पड़ेगां यदि आपने सल्लेखनासहित मृत्यु का वरण कर लिया, पंडितमरण हो गया तो, मनीषियो! सात/आठ भव तो दूर, दो/तीन भव में ही आप पंडित-पंडित मरण को प्राप्त हो जायेंगें आज से ही तैयारियाँ करों मोह-मदिरा पीना बंद कर देना मद एक व्यसन है और व्यसन तो विष से भी अधिक खतरनाक होता हैं अब सोचो! जब आप तीव्र मोह में लिप्त हो
और तीव्र अशुभ कथन कर रहे हो, उस समय की पर्याय को एक क्षण को देख लो तो अपने विभावों के स्वरूप का भान हो जाता हैं भो ज्ञानियो! तुम्हारे मोह की खेती जहाँ भी चल रही है, वह पुण्य के पानी से चल रही हैं जिस दिन पुण्य का पानी नष्ट हो जायेगा, दुनियाँ के राग-रंग भी तुम्हारे फीके हो जायेंगें इसीलिए पानी का व्यय मत करना, बूंद-बूंद की रक्षा करों पुण्य के पानी की रक्षा करना शुरू कर दों क्योंकि पुण्य का पानी अलग से नहीं लाओगें अहो! जब बाल्टियाँ भर-भरकर जल फैलाओगे तो उसकी एक-एक बूंद में कितने जीव खत्म होंगे ? भैया! जैनधर्म की अपेक्षा से तो असंख्यात् है, पर वैज्ञानिकों की गणना है कि छत्तीस हजार चार सौ पचास जीव एक बूंद पानी में दिखते हैं एक बाल्टी पानी में स्नान किया था, हम कैसे कहें कि आप लोग पवित्र हो ? हर क्रिया में हिंसां कम से कम छान ही लेतें अरे! जिसकी राख होनी है, उसको क्या चमकाओगे? इसीलिए चमड़ी को चमकाने के पीछे अहिंसा को मत खो देनां
___ भो चेतन! वर्तमान में जीना शुरू कर दों हम ऐसे पाप अब तो न करें कि जिससे भविष्य में विपाक का नाम हमारे सामने खड़ा हों विपाक यानी कर्म का फलं तुम्हारे सोचने से कुछ होने वाला नहीं आचार्य वादीभसिंह सूरि लिख रहे हैं कि-संसार के भोले प्राणी पाप का फल नहीं चाहते, लेकिन पाप कर रहे हैं पुण्य कभी भी नहीं करना चाहते और धीरे से कह देते हैं 'होता स्वयं जगत परिणाम भो ज्ञानी! स्वच्छन्दी बनने के लिए यह कारिका नहीं लिखी गई हैं अरे! ससुर जब सिर पर सिगड़ी रख रहा था, जब सिंहनी खा रही थी, जब लोहे के आभूषण पहनाये जा रहे थे, जब बसूले से शरीर छिला जा रहा था, तब वे योगी कह रहे थे 'होता स्वयं जगत परिणाम तुम तो मस्त हो रहे राग में और कह रहे हो 'होता स्वयं जगत परिणाम' इसीलिए, मनीषियो! ऐसे मोह/राग की मदिरा को छोड़ दों
भो ज्ञानी! आचार्य भगवान् कह रहे हैं कि जो मदिरा है, वह जीवों का ही रस है, सड़ाकर रख दिया हैं आपके घर में फल आये, भोजन बना, फफूंद पड़ गयी तब कपड़े से साफ किया और खा लियां जो बचा सो आपने धीरे से फ्रिज में रख दियां एक सज्जन आये, बोले–महाराज! हमारे घर में तो सोले की चप्पलें हैं
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