________________
पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
:
पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 211 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
जब तक हिंस्य का ज्ञान नहीं होगा, तब तक हिंसा का त्याग कैसे होगा ? किन-किन स्थानों पर कैसे-कैसे जीव हैं? कैसे-कैसे घात होता है? यह जानने की आवश्यकता हैं यह लोभ नहीं, विवेक हैं पहले के बुजुर्ग जब भोजन करते थे तो अंत में थाली में पानी डालकर पी जाते थे तथा उतना ही भोजन लेते थे जितना उनको चाहिये थां आप कहेंगे कि इतना लोभ कि थाली धोकर पीते थें अरे! अज्ञानियों को लोभ दिखता है, परंतु ज्ञानियों को अहिंसाधर्म दिखता हैं शिकारी जब जंगल में जाता है तो सीधा किसी प्राणी को पकड़ता नहीं है, जाल फैलाता है और उसमें जीव फँस जाते हैं आप भोजन की थाली ऐसी आधी-अधूरी खाकर छोड़ गये, उसमें मक्खियाँ, चीटिंयाँ आएँगी और सम्मूर्च्छन जीव अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न हो जायेंगें उनकी हिंसा किसे लगेगी? वह दोष किसके सिर पर जायेगा ?
अहो! वह लोग नहीं था, वह विवेक था कि में थाली में एक कण भी नहीं छोडूंगा और ज्यादा हुआ तो थाली उल्टी करके रख दी कि मेरे किसी निमित्त से किसी भी जीव का वध न हो, क्योंकि गृहस्थ हैं आजकल रिवाज हो गया है कि पूरा खा लेंगे तो कोई क्या कहेगा? अतः आप झूठन छोड़कर चले गयें अहिंसा की दृष्टि से देखोगे तो अपना जूठा गिलास दूसरे को पीने को मत देनां तुम्हारे मुख के जीव और आपके शरीर के जीवाणु दूसरे के शरीर में प्रवेश करेंगें
भो ज्ञानी! किसी को जूठन खिलाना पिलाना वात्सल्य नहीं हैं जूठन खिलाने को तुम लोग व्यवहार मानते हों एक साधु भी अपनी पिच्छी दूसरे साधु की पिच्छी से सटाकर नहीं रखतां उमास्वामी महाराज लिख रहे हैं कि, अहो ! अहिंसा के पालको! आस्रव के दो अधिकरण हैं- जीव अधिकरण, अजीव अधिकरणं यह पिच्छी हमारा अधिकरण उपकरण है और मैंने इससे मार्जन किया है, तो मेरे शरीर के जीवाणु उसमें हैं दूसरे के शरीर के कीटाणु उनके उपकरण में हैं यदि परस्पर में संघर्षण होगा तो जीवों का घात होगा अतः एक-दूसरे के वस्त्रों का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए अजीव अधिकार सूत्र कह रहा कि आपस में जैसे आप लोग बैठे हो, वैसे नहीं बैठ सकते हो, संघर्षण हो रहा हैं अभी तो आपको अहिंसा का ज्ञान ही नहीं हैं
भो ज्ञानी! आप जिसे व्यवहार कहते हो, भगवान् महावीर उसे हिंसा कहते हैं कैसे? सीधे आए और हाथ से हाथ मिलाया, एक-दूसरे के हाथ के जितने जीव थे, सब मर गयें अरे! हाथ नहीं मिलाया जाता, जुहार किया जाता हैं तुलसीदासजी ने भी रामायण में जुहार शब्द को रखा हैं जुग के आदि में हुए अरू यानि पूज्य अरहंत आदिनाथ स्वामी, उनको है नमस्कार; इसका नाम है जुहारं किन-किन स्थानों पर हिंसा है ? बोलने में चलने में बैठने में सोने में, यहाँ तक कि शौच क्रिया में इन संपूर्ण स्थानों में सम्यकदृष्टि जीव यह देखता है कि जीव तो नहीं हैं जहाँ मल का विसर्जन हो जाता है, वहाँ कीड़े निकलते हैं, बिलबिलाते हैं भो ज्ञानी ! शरीर का गर्म मल जब गिरता है, तब उन जीवों की क्या हालत होती होगी ? इसको यों ही मत डाल दिया करों अंदर जो जीव बैठा हुआ है, वह सिद्ध शक्ति से युक्त है और आपने गरम पानी पटक दियां आप
Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
-
Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com
For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com