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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 187 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
है कि ऐसे चलाना चाहिये, व ऐसे मोड़ना चाहिये; परंतु जब भीड़ में चलाने का अवसर आ जाए कि कैसे क्या करना है, तभी आप कुशल चालक हों
मनीषियो! ताला लगाना परिवार में अविश्वास का प्रतीक हैं एक सज्जन के बैग में चार हजार रुपए रखे थे और उसमें ताला पड़ा था, पर होनहार देखो, वे आहार के लिए आये और उधर चुरानेवाले ने बैग नहीं चुराया, ताला नहीं तोड़ा धीरे से ब्लेड से बैग काटा और पैसे निकालकर ले गयां अब तुम रखे रहो बैग, खोलते रहो तालां इसलिए कुछ भी कहो, परस्पर के अविश्वास का प्रतीक यह ताला हैं आप उसे सुरक्षा मात्र की दृष्टि से देखा आगम यह कहेगा कि जब तक तेरा पुण्य है, तब तक कोई नहीं चुरा सकता हैं जीव कर्मक्षेत्र में होनहार नहीं लगाता, धर्मक्षेत्र में लगाता है कि, महाराज जी ! जब काललब्धि आयेगी तो मैं मुनिराज बन जाऊँगा भइया! जिस दिन काललब्धि आयेगी तो चोरी होगी और जब काललब्धि नहीं आयेगी तो चोरी नहीं होगीं परंतु घर में छोटे से ताले से झलकता है कि परस्पर मैं सास-बहू, बेटा - पिता पर विश्वास नहीं हैं देखो, भगवान् महावीर के शासन में गाय व सिंहनी एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं सिंहनी का बच्चा गाय का और गाय का बच्चा सिंहनी का दुग्धपान कर रहा हैं परंतु आज एक माँ के दो लाल एक आँचल पर एक साथ दुग्धपान नहीं करते हैं "फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर ही रहा करे"
मनीषियो ! प्रेम तभी फैलेगा, जब मोह दूर रहेगा यदि प्रेम का अस्त्र होगा तो शत्रु भी गले लगेगा इस सूत्र को स्वीकार किया था राम ने इसीलिए लंका में विभीषण भैया मिल गयें जंगल में मात्र तीन गये थे, परंतु पूरी सेना की भीड़ लग गयी; क्योंकि 'फैले प्रेम परस्पर जग में बस इतना सीख लिया था मैं समझता हूँ कि ‘षट्खण्डागम', 'समयसार' तो बाद की बात है, पहले 'मेरी भावना का स्वाध्याय हो गया तो समयसार, षट्खंडागम, धवला जी यह सब अंदर में आनंद देने लगेंगे और जब तक परस्पर में प्रेम नहीं है तो वे ग्रंथ भी आपके लिये सग्रंथता का कारण बन जाएँगे यदि आप सोचोगे कि मैं बड़ा विद्वान् हूँ, तो पहले मुझे सम्मान मिलना चाहियें आगम तो आपसे कह रहा है कि न सिद्ध छोटे हैं, न बड़े हैं निगोदिया न छोटे हैं, न बड़ें अनेक में एक मिलानवाले मात्र दो स्थान हैं-संसार में निगोद और परमार्थ में सिद्धशिलां पर दोनों के प्राप्ति की प्रक्रिया में अंतर है; क्योंकि एक पुरुषार्थ साध्य है और दुसरा सहज हैं
भो ज्ञानी! आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने अहिंसा व हिंसा के भेद गिनाए हैं जीव की अंतरंग दृष्टि को कैसे भावों से रखा हैं एक जीव ने हिंसा न करके भी हिंसा के फल को भोगा और एक जीव के द्वारा हिंसा हुई, फिर भी हिंसा के फल को नहीं भोग रहा हैं हाथों से हिंसा तो नहीं हुई, पर संक्लेषित भावों से बैठा-बैठा यह कह रहा है कि इन्होंने ऐसा किया, मैं इनको छोडूंगा नहीं जबकि ताकत नहीं है, पर संक्लेषता इतनी ज्यादा है कि यदि यह मापी जाएगी तो सारे विश्व के जीवों को नाश करने की परिणति इसके मन में हैं जैसे लोभ-कषाय में सारे विश्व की सम्पत्ति मेरे अधीन हो जाए' की भावना होने पर तू भूल गया है कि Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
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