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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 144 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 भो ज्ञानी! संकट/विपदाओं को दुःख मत मानो, उपहार मानों ज्ञानीजीव संकटों के क्षणों को अपने जीवन-निर्माण करने का उपहार मानता है, क्योंकि जिन्होंने कुछ सहन किया है, उन्होंने प्राप्त किया हैं जो काँटों में खिला होता है, उसे साहित्य में पुष्पराज कहा जाता हैं इसीलिए संकटों के समय में कभी घबराना नहीं आपत्ति के दिनों में ही तुम्हारी परीक्षा होती हैं वे जीव बहुत ही क्षीण पुण्यात्मा हैं जो विषमता के दिनों में फाँसी लगाकर चले जाते हैं अहो! तू इस पर्याय में सहन नहीं कर पा रहा है, तो तूने पर्याय का नाश कर लिया, परंतु पाप का नाश तो नहीं किया, लोक-अपवाद के पीछे तू फाँसी लगा बैठां ऋण न देना पड़े तो फाँसी लगा लीं भो ज्ञानी! यह किसने कह दिया कि तू बच गया? अरे! इस पर्याय में नहीं, तो अगली पर्याय में तो तुमको ऋण चुकाना ही पड़ेगां ध्यान रखना, राजपुत्री, रघुवंश की पुत्रवधू , कुलवंती सीता के ऊपर इतना बड़ा कलंक थोपा गया, फिर भी समझदार थीं भो आत्मघाती! आप कभी यह विचार नहीं किया कि जीवन में आप तो चले जाओगे, परन्तु उस परिवार की फिर क्या दशा होती है, कितना पाप का बंध आपको होगा? भो ज्ञानी! जिस समय राजा श्रेणिक ने मुनिराज के गले में साँप डाला था और सेठानी ने निकाला था, लेकिन धन्य हो वीतरागी मुनि को, उन्होंने दोनों को समान आशीष दियां यह देखकर उस समय श्रेणिक को बहुत पश्चाताप हुआं अतः तलवार की ओर उसकी दृष्टि जाती है कि अब तो मैं अपना सिर ही निकाल दूंगा, तभी इस पाप का प्रायश्चित होगां तब उन अवधिज्ञानी मुनिराज ने उस समय कहा था-हे राजन्! क्या सोच रहे हो? रक्त से भीगे वस्त्र को आप रक्त से ही साफ करना चाहते हों एक महापाप तो संत के गले में साँप डालकर किया, अब तुम अपना गला निकालकर उसे साफ करना चाहते हों अहो! अब तुम उस पाप को छुपाने के लिए नहीं, मुँह छिपाने के लिए गला निकालना चाहते हों राजन्! ऐसा कर्म मत करों अहो श्रेणिको! जीवन में प्रतिज्ञा कर लेना कि कभी ऐसे भाव नहीं लाऊँ कि मैं मर जाऊँ भो ज्ञानी! जरा-सी तकलीफ हुयी तो यह कभी मत कहना कि, हे भगवान्! मेरी समाधि हो जाएं साधक के मन में कभी ऐसे परिणाम नहीं आतें वह आत्मघात कर भी नहीं सकता, क्योंकि धर्म से जुड़ा हैं माँ जिनवाणी कह रही है कि, हे लाल! ऐसी युवा अवस्था में तुम समाधि की भावना भा रहे हो, इसका तात्पर्य है कि तुमको संयम भारस्वरूप लग रहा हैं स्वर्ग में चले भी जाओगे, तो असंयम में बैठकर क्या करोगे ? देवांगनाओं के साथ रमण करोगें अरे! जितना काल संयम में बीते, वह श्रेष्ठ हैं एक योगी को आगम कह रहा है कि भावना तो यह होनी चाहिए कि समाधि सहित मरण हो, पर भावना यह नहीं होनी चाहिए कि आज ही समाधि हो जाएं जीवन की इच्छा, मरण की इच्छा, मित्रानुराग, सुखानुबंध, निदान यह पाँच अतिचार सल्लेखना-व्रत के हैं बारह वर्ष उत्कृष्ट समाधि का काल हैं जगत में कुछ लोग मरते नहीं है, पर धमकियाँ दे-देकर सामनेवाले को जरूर मार देते हैं कि सुनो! हम तेल डाल रहे हैं, हम चले जाएँगें अहो ज्ञानी! आत्मा कहाँ जाएगी ? तीन लोक के बाहर तो जा नहीं ____Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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