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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 141 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
भो ज्ञानी! आचार्य भगवान् यहाँ कारण और कार्य भाव की चर्चा कर रहे हैं कि सम्यक्त्व 'कारण' है और ज्ञान 'कार्य' दीप किसी से नहीं कहता कि मेरे प्रकाश में तुम देखों परंतु ध्यान रखना, अंधेरे में बिना दीप के कुछ दिखता भी नहीं हैं नेत्र तो बड़े-बड़े हैं, कहाँ चली गयी ज्योति ? अहो! ज्योति में कमी नहीं है, दीपक की कमी खल रही हैं दीप होता, तो मैं शास्त्र पढ़ लेतां ज्ञान तो तेरे अंदर है, शास्त्र में नहीं हैं परंतु ध्यान रखो, शास्त्रों के बिना, निमित्त के बिना सबकुछ होता तो अलमारी क्यों भर रहे हो? कुछ योग-संयोग, यही तो निमित्त हैं परंतु उपादान की योग्यता आपकी ही हैं अहो! निमित्त लेकर मत बैठ जाना मात्र निमित्त को मानना, वह भी मिथ्यात्व है और मात्र उपादान को मानना, वह भी मिथ्यात्व हैं योग्य निमित्त तो उपादान का ही होता हैं इसलिये अमृतचंद्र स्वामी की बात को आप बड़े गौर से समझों भगवान् जिनेन्द्र कह रहे हैं कि यदि आप सर्वथा निमित्त को लाँघ दोगे, तो लोक-व्यवस्था नहीं चलेगी
भो ज्ञानी! 'रयणसार' ग्रंथ में आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने लिखा है
मदिसुदणाणबलेण दु, सच्छंदं बोल्लदे जिणुद्दिढं जो सो होदि कुदिट्ठी, ण होदि जिणमग्गलग्ग र वों 3
जो जीव मति व श्रुत ज्ञान के बल से माँ जिनवाणी को स्वच्छंदरूप से कहता है, अन्यथा कहता है, तो वह मिथ्यादृष्टि हैं जैनदर्शन में मिथ्यादृष्टि से बड़ी कोई गाली नहीं हैं इसलिये सम्यक्त्व के बाद ही ज्ञान की आराधना करना इष्ट हैं दोनों एक ही काल में उत्पन्न होते हैं, फिर भी कारण-कार्य विधान हैं दीपक का होना, प्रकाश का आना और अन्धकार का भागना, कार्य तीन और समय एक अतः सम्यक्त्व होते ही अल्प-ज्ञान भी सम्यक् हो जाता है और चारित्र भी सम्यक हो जाता हैं
मंगल दीप = आत्म दीप
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