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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 135 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
भो ज्ञानी! हमारे आगम में मिथ्यादृष्टि को भी कुदृष्टि से नहीं देखा, मिथ्यादृष्टि को कुदृष्टि नहीं लिखा; क्योंकि दोष व्यक्ति का नहीं, दोष दृष्टि का हैं धन्य हो वह वीतरागी श्रमणकार्तिकेय स्वामी, जिन्होंने 'कार्तिकेय अनुप्रेक्षा' में लिखा है कि संबंधियों के द्वारा किया हुआ उपसर्ग संक्लेषता तो बढ़ाता है, परंतु समता रखने पर उनके द्वारा प्रदत्त कष्ट से असंख्यात-गुणी कर्म की निर्जरा होती हैं अरे! कैसेट तो जड़ है और शब्द भी जड़ है, पर शब्द-शक्ति तुझे धन्य हो कि तू वीतरागता को प्रकट करा देती हैं इसलिए, भगवान् अमृतचंद्र स्वामी ने शब्द ब्रह्म कहा हैं दिगम्बर-आम्नाय के दर्शन में शब्द को ब्रह्म कहने वाले पहले अमृतचंद्र स्वामी हैं क्योंकि ब्रह्म की उत्पत्ति का कारण होने से शब्दब्रह्म कहा हैं आत्मब्रह्म तो आत्मा ही है, उस ब्रह्म का कोई माप ही नहीं है, अनुपम हैं अमृत के द्वारा विष को दूर किया जाता है, लेकिन अमृत ही जहर का काम करेगा तो जहर किससे उतेरगा?
मनीषियो! ध्यान रखना, कभी अज्ञानता मत कर बैठना वृक्ष में जब फल आते हैं तो वह नीचे झुक जाता है, ज्ञानी जब ज्ञान से भरा होता है, तो विनय से भर जाता हैं झुक जाता है, परन्तु ज्ञानी ही अपने आपको अहंकारी बना बैठे तो अज्ञानी बेचारा क्या करेगा? इसलिए, जिनके पास विनय नहीं है, ऋजुता नहीं है, उसे ज्ञानी कहकर ज्ञान की अवहेलना मत करना अविनयी को ज्ञानी कहकर तम सम्यकज्ञान के मत करना, वीतराग-ज्ञान की अवहेलना मत करना मध्यस्थ रहना, पर द्वेष कभी मत करनां उसके अविनय का प्रचार भी मत करनां यदि कोई मार्ग से च्युत होता आपको लगे तो जाकर उसे संभालना चाहिएं इसलिए ऐसे अवसरों पर कहीं भी लोभ मत करना लोभ करना ही तो पाप हैं लोभ करना है तो आयु-कर्म से कर लो कि मेरी आयु क्षीण हो रही है, तुरंत पुण्य कर लों भो ज्ञानी! विद्या का लोभ मत करना, जितनी तुम्हारे पास है, उतनी बाँट दों कम से कम तुम शुभ-उपयोग में तो लगाओगें अशुभ-भाव से बचे तथा दूसरे को बचाने में तो निमित्त बने ही परंतु जितना भी समझाना, समीचीन समझानां मनीषियो! संस्कृत भाषा के धुरंधर कवि आचार्य अमितगति स्वामी ने लिखा है: यदि ज्ञान संयम-शून्य है, तो वह गधे के ऊपर रखे चंदन के समान होता है, जो ढो रहा है, परंतु स्वयं उपयोग नहीं कर पा रहा हैं
भो ज्ञानी! उपदेश का भी ध्यान रखनां तत्त्व की चर्चा भी करना हो तो संभलकर करनां मिष्ट पकवान सूअर या गधे के सामने रख दो, उसका तो मन नहीं रुचतां रत्नों के हार मृग के गले में लटका दो, एक दौड़ लगायेगा, टूट जाएगां अंधे को दीप दिखाओ, बहरे को गीत सुनाओ, कोई पागल हो तो सुना दो, इसी प्रकार मूखों को शास्त्रों की कथा सुनाओ तो कोई उपकार नहीं होता हैं इसलिये पंडित दौलतराम जी ने लिखा "ताहि सुनो भवि मन थिर आन," भव्यों के लिये कहा है, अभव्यों के लिये नहीं जिनकी भव्यता बिगड़ चुकी है उनके लिए वीतराग-सर्वज्ञ की वाणी भी कुछ नहीं कर पाती इसलिये, मनीषियो वह जितना तत्त्व-उपदेश है, भव्यों के लिये है; अभव्यों के लिये नहीं हैं
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