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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज
Page 134 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 आँसू टपकने लगें यह देख पुत्र बोला-माँ! आपसे मैंने इतना ही तो कहा है कि मेरे नाना के यहाँ से खिलौने क्यों नहीं आए? और आप रो रही हैं मेरे लाल! जो तेरे पिता हैं, वही तेरे नाना हैं बेटा! उल्लू को दिन में नहीं दिखता, कौओं को रात्रि में नहीं दिखता, पर कामी पुरुष को दिन व रात दोनों में ही नहीं दिखतां बेटा! जब मैं अपने पिता के भवन में एक दिन श्रृंगार कर रही थी, तो उनकी कुदृष्टि पड़ गईं उन्होंने मंत्रियों से पूछ लिया कि संसार में सबसे सुंदर वस्तु के उपयोग का अधिकार किसको है? मंत्रियों ने कह दिया-स्वामिन्! आपका ही अधिकार हैं उन्हें क्या मालूम था कि राजा छल-छिद्र से भरी बात कर रहा था पश्चात् राजा ने एक मुनिराज से भी पूछा थां उन्होंने कहा-राजन्! राष्ट्र में जो सम्पत्ति होती है, उसका तो स्वामी राजा होता है, लेकिन स्वयं की बेटी, माता और माँ जिनवाणी व जिनालय पर राजा का कोई अधिकार नहीं होतां पर राजा नहीं मानां जिसको कर्मों ने डस लिया है, उसे जिनेन्द्र की देशना कहाँ सुहाती है?
मनीषियो! नन्हा सा बालक माँ के चरणों में शीशटेक कर कहता है कि अब तो मैं समता-माँ की गोद में खेलकर, निज-आत्मपिता की गोद में ही बैठना चाहता हूँ हे जननी! जिस पर्याय से पाप होते हैं, मैं उस पर्याय को ही नाश करके रहूँगां ग्यारह वर्ष का वह बालक घर से निकला, निग्रंथ वीतरागी गुरु के चरणों में पहुँचकर निवेदन करता है कि, हे प्रभु! ऐसा उपाय बताओ, जिससे मेरी पर्याय का परिणमन समाप्त हो जाएं अब बालक कार्तिकेय नहीं, वह मुनिराज कार्तिकेय हो गयें कार्तिकेय मुनिराज ने अगाध ज्ञान का अर्जन किया और महान ग्रंथ "कार्तिकेयानुप्रेक्षा" का सृजन किया, जिसमें उन्होंने अपने अंदर की सम्पूर्ण भावनाओं को भर दियां
भो चेतन! देख लो वह दृश्य भी कैसा होगा कि भगिनि खड़ी-खड़ी देख रही है और उसके भाई मुनिराज के शरीर को वसूले से छीला जा रहा हैं शरीर तो छिल रहा है, यह तो नष्ट होगा ही, परंतु वेदक-भाव स्वात्मा का थां वेदना देह में थी, वेदक-भाव अंदर का था, अंदर के वेदक- भाव ने बाहर की वेदना का वेदन होने ही नहीं दियां मुनिराज का चिंतन चल रहा है कि यदि ममत्व करूँगा तो बंध जाऊँगां "बध्यते मुच्यते जीवः" जीव ममत्व से बंधता-छूटता हैं रक्त के फुब्बारे छूट पड़े, वह योगी समयसार में लीन हो गया, ज्ञान धारा में लीन हो गया- "अहमिक्को खलु सुद्धो", मैं एक हूँ , निश्चय से शुद्ध हूँ , परमाणु मात्र मेरा नहीं है, मैं तो ज्ञानमयी हूँ जो छिल रहा है, वह रूप छिल रहा है, और जो मैं हूँ , वह स्वरूप है, उस पर वसूला चल ही नहीं सकता हैं
___अहो! कैसी समता होगी? परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है-ऐसा अटल श्रद्धान जिस मुमुक्षु का है, भो ज्ञानी! वही मोक्षमार्गी हैं इसीलिए अमृतचंद्र स्वामी कह रहे है, मनीषियो! ज्ञानी बन जाओ, परंतु बुद्धि के ज्ञानी नहीं, क्योंकि तों में जिओगे तो अश्रद्धानी हो जाओगें यह बुद्धि कैसी है जो दोषों की ओर जा रही हो? सोचो, जो जीव मल से मोती निकाल रहा है निश्चित ही वह कभी न कभी भगवान् बनेगां
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