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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज
Page 126 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 दृष्टिपात किया है तो, भोली आत्मन्! मेरी दशा देख लों मैं पैदा हुआ था मुनिसुव्रत के शासन में, मैंने पाप किया था मुनिसुव्रत के शासन में और आज तक करोड़ों वर्ष बीत गये, पर जल रहा हूँ महावीर के शासनकाल में अहो! इस शरीर की चिताएँ जल जाएँगी, पर कलंक की चिता जलानेवाला कोई विश्व में आज तक नहीं हुआं यह रावण नहीं जल रहा, वह तो तीर्थकर बनेगा, रावण का कलंक जल रहा है और तब तक जलेगा जब तक कोई दूसरा तीर्थकर नहीं आ जाएगा, यह पंचमकाल की श्वांसों तक जलता रहेगां
भो चेतन! जलाना चाहते हो तो ध्यान की अग्नि से कर्मों के समुदाय जलाओं भो ज्ञानी! दोष पर्याय ने किया था, क्रोध आपनें अहो! क्रोध की चर्चा आती है तो वीतरागी मुनिराज द्वैपायन आँखों के सामने खड़े होकर संदेश देते हैं कि, हे क्रोधी! तुझे भटकना ही होगा, चाहे धर्म के पीछे क्रोध करना, चाहे कर्म के पीछे क्योंकि अग्नि चाहे चंदन की हो या बबूल की हो अथवा बेशरम की हो, अग्नि का काम तो जलाना हैं इसी प्रकार, चाहे तुम पुत्र-पुत्रियों पर क्रोध करो, चाहे तुम धर्म के नाम पर करो; परंतु सिद्धांत कहेगा कि कर्म का बंध तो निश्चित हैं पंडित दौलतराम जी ने लिखा "ताहि सुनो भवि मन थिर आन", स्थिरचित्त होकर सुनों यदि क्रोध आ रहा हो, लोभ आ रहा हो, मान सता रहा हो और काम सता रहा हो तो उस समय अपने आपको, अपने आप से, आपने आप के लिए, अपने आपके द्वारा, अपने आप में कुछ कह देनां बाहर कहने में यदि शर्म लगे तो, भो ज्ञानी! अपने अपको अपने आप में ले जानां अपने घर में प्रेम से समझा देना कि यह उचित नहीं हैं
भो ज्ञानी! जन्मता तू वासना की शय्या पर ही है, परंतु ज्ञानी वो होता है, जो सल्लेखना के संस्तर पर आरूढ़ होकर परमेश्वर बन जाता हैं इसलिए, जीवन में ध्यान रखना, यह प्रवचन आप आज के लिए नहीं सुन रहे हो, यह उस दिन के लिए सुन रहे हो जिस दिन यह आँख तुम्हारी बंद होगी, उसकी तैयारी कर लेनां भो चेतन! जब पथ भला है, तो अंत भला होता हैं पथ भला नहीं है, तो अंत कभी भला नहीं हो सकतां प्रज्ञा से विवेक अनिवार्य है और विवेक के साथ युक्ति अनिवार्य है, जिसे आप लोग जुगाड़ कहते हों आचार्य अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि जिनवाणी के सूत्रों से स्वयं के लिए भी और दूसरे के लिए भी स्थितिकरण करना चाहियें उपगूहन तो आप लोगों ने कर लिया, लेकिन स्थितिकरण नहीं किया तो आपने पाप कर लिया; क्योंकि उपगहन तो शिथिलाचार का किया गयां पर आपने पुनः स्थितिकरण नहीं किया तो आपने शिथिलाचार का ही पोषण कर दियां
अहो मुमुक्षु आत्माओ! जीवन में यह भावना भाना कि हे नाथ! इन नैनों से कभी शिथिलाचार न देखू भो ज्ञानी! कोई जीव श्रद्धा से डाँवाडोल हो रहा है तो आपका कर्तव्य बनता है कि वह श्रद्धा नहीं खो देवें कोई विपरीत-ज्ञान में जा रहा हो, तो उसे जिनवाणी पढ़ने को कहें संयम से च्युत हो रहा हो तो कहना कि आप घबराओ नहीं, आपको तो बहुत बड़ी विभूति मिली हैं यदि कोई साधक आपको विपरीत परिणमन करते
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