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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 119 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
मैं माफ नहीं कर पा रहा हूँ यद्यपि आप भगवान् हो, मैं आपको रोज नमस्कार करता हूँ , परंतु, प्रभु! आपकी अल्प हठ का परिणाम था कि आज तीन-सौ -त्रेसठ मत चल गये और अनेक जीव संसार में भटक गये, आप भले ही भगवान् बन गयें एक क्षुल्लक भगवान् जिनेंद्रदेव के शीश से छत्र को चुरा कर ले गया और जिनभक्त सेठजी के निवास में जाकर छुप गयां सेठजी ने देखा अरे! यह तो क्षुल्लक जी हैं मैं तो इनको चैत्यालय जी में विराजमान करवाकर आया थां वह समझ गये, जरूर यह भेषी हैं अगर इसके पास धर्म होता, तो यह ऐसा करता ही क्यों ? परंतु मुझे विवेक से काम करना हैं पहरेदारों से कहा-क्यों दौड़ रहे हो आप लोग ? सेठजी! अपने जिनालय से छुल्लकजी ने छत्र चुराया हैं अरे! एक धर्मात्मा को तुम चोर कहते हो, यह छत्र तो मैंने उठवाया था, आप लोगों को प्रायश्चित्त करना चाहिएं वे कहने लगे-धिक्कार हो हमें एक धर्मात्मा पर इतना बड़ा दोष लगा दियां सारे-के-सारे पहरेदार लौट गये और चर्चा करने लगे- अरे! आज हम सभी से बड़ी भूल हो गयीं एक धर्मात्मा के प्रति हम लोगों ने भ्रम कर लिया लेकिन वहाँ तो सेठजी ने सबको भगा दियां अरे! उपगूहन यह नहीं कहता कि शिथिलाचार का पोषण करो; उपगूहन कहता है कि धर्म की रक्षा करों ध्यान रखना, उपगूहन करके ही नहीं छोड़ देना, आपके लिए आगे स्थितिकरण भी एक अंग होता हैं अतः, सेठजी ने एकांत में ले जाकर कहा-अरे भाई! तुझे छत्र ही चुराना था तो यह धर्मात्मा का भेष क्यों धारण किया ? वीतराग शासन को लजाने में तुझे जरा भी संकोच नहीं होता?लोगों को क्षुल्लक-भेष पर अश्रद्धान हो जाएगा, तेरी परिणति को देखकर लोग अनादर-भाव से देखेंगे; परंतु ध्यान रखना, जनसामान्य तो यही कहेगा कि अब धर्मात्मा ऐसे ही होते हैं
भो चेतन! अपने घर को आग से बचाना चाहते हो, तो पड़ोसी के घर की आग को बुझा देनां अतः, जैसी श्रद्धा-भक्ति अभी कर रहे हो, ऐसी श्रद्धा-भक्ति इस धरा पर कोई भी संत आए उनकी करना, क्योंकि अपने को धर्म देखना है, अपने को व्यक्ति नहीं देखना हैं धन्य हो जिनभक्त सेठ, जिसने धर्म-भेषी को सत्य-भेषी बना दियां क्षुल्लक ने सेठ के चरण पकड़ लिए सेठ बोले- बात ऐसी है, 'भेष को बदल दीजियें आप चोर जरूर हो पर यह भेष चोर का नहीं है और मैं गृहस्थ हूँ , मैं इस भेष से अपने पैर नहीं छुला सकतां यदि यही करना है तो भेष बदल लीजियें इस भेष में रहना है तो ध्यान रखो, यह क्रिया तुम्हारी नहीं होगी; क्योंकि यह वीतराग-भेष है, पाप-प्रवृत्ति का भेष नहीं हैं “सेठजी की इतनी अगाध श्रद्धा देख क्षुल्लकजी कहने लगे- मुझे क्षमा करो और इतना बता दो कि वस्तु का यथार्थ स्वरूप क्या है?
भो ज्ञानी! वाणी में वह ताकत होती है कि यथार्थ चोर श्रावक-शिरोमणि बन गयां प्रायश्चित्त ले लिया और भगवान् जिनेंद्र बनने के लिए उसने सच्चा भेष स्वीकार कर लियां पर ध्यान रखना, जिन–भक्त सेठ ने 'छुपाया' था और आज के सेठ 'छपा' रहे हैं इतना अंतर आ गया हैं आज के धर्मात्मा ऐसे हो गये हैं कि पर्चे-पर-पर्चे छपाकर दे देते हैं कि हम सत्य को प्रकट कर रहे हैं अरे! तुम क्या सत्य को प्रकट करोगे?
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