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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 108 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
स्वामी, कुंदकुंद स्वामी यही कहेंगे कि तेरी दृष्टि पर्यायों पर हैं अहो! भगवान बनने के लिए भगवान को देखना, भगवान की प्रतिमा को नहीं देखनां तुम गुरु को देखना, पर गुरु के शरीर को नहीं देखनां मूर्ति को देखोगे तो तुम परसमय में ही रहोगे, क्योंकि सम्यकदृष्टिजीव पर्याय में पर्यायी को ढूँढता हैं
मनीषियो! जिनदेव से दुनियाँ मिलती है, पर वह किसी से नहीं मिलते, यही तो अरिहंत का स्वरूप हैं जिससे दुनियाँ मिले, पर जो दुनियाँ से कभी नहीं मिले, यही सच्चे देव का स्वरूप हैं यदि वे मिलने लग गये, समय देने लग गये, तो वे हमारे भगवान बिल्कुल नहीं हैं समय रागी देता है, समय द्वेषी देता हैं वीतरागी किसी को समय नहीं देते, वह तो समय में लीन रहते हैं
भो ज्ञानी! जिसे लोग भूषण कहते हैं, उसे शीलवती दूषण कहते हैं जिनवाणी में पढ़ लेना, शरीर के संस्कार का नाम अब्रह्म हैं जो शरीर को सजाए, वह शील में दूषित हैं जिसका स्वश्रृंगार नहीं है, वह पर के श्रृंगार से जड़ा होता हैं हे प्रभु! आपके शासन में जीने वाले संत शील से मंडित होते हैं मनीषियो! यह वसन आपने नहीं पहने, ये वसन तो वासनाओं ने पहने हैं वासना उतर जाती है तो वस्त्र भी उतर जाते हैं भइया! जिन्हें स्वयं के तन की चिन्ता नहीं है, ऐसे हैं वे धरती के देवतां
भो चेतन! शरीर स्वभाव से तो अपवित्र जरूर है, लेकिन रत्नत्रय से पवित्र हैं ऐसे रत्नत्रय से पवित्र शरीर को क्लान्त, रोगी, पीड़ित देखकर ग्लानि नहीं करना, उसका नाम निर्विचिकित्सा अंग हैं ध्यान रखना, धर्मात्मा कहीं भी दिख जाये, उसको गले से लगा लेनां कह देना कि आप तो मेरे वीतराग-धर्म को लेकर चलते हो और धर्म से मुझे वात्सल्य हैं यदि किसी ने एक बार भी "णमोकार मंत्र" पढ़कर सुना दिया हो, तो उसकी पीठ थपथपा देना, क्योंकि उसने पंचपरमेष्ठी के ध्यान में मन, वचन, काय को लगाया हैं परन्तु धर्मात्मा से कह देना कि आप मेरे से माला और पूजा की अपेक्षा मत रखनां मेरा कर्तव्य आपकी उपासना करना हैं परंतु आपने मेरे ऊपर एहसान के लिए धर्म धारण नहीं कर रखा है, स्वयं के कल्याण के लिए धारण किया हैं हे धर्मात्मा! तुम्हारी परिणति ऐसी हो कि अधर्मीरूपी भौंरा बाहर जा रहा हो, तो वह धर्म की सुगन्ध को देखकर सुभाषित सौरभ में आकर बैठ जाए, इसका नाम धर्मात्मा हैं
अहो अव्रतियो! आप व्रतियों का आदर करते रहना, ताकि अव्रतियों के भी व्रती बनने के भाव बनते रहें दोनों अपना काम करें, तभी तो तीर्थकर-शासन कायम रहेगां भगवान गौतमस्वामी ने जब तीर्थंकर वर्धमान स्वामी के प्रथम दर्शन किये तो पहले नमस्कार नहीं कियां उन्होंने कहा-हे प्रभु! आपका शासन जयवन्त हो, परम जयवन्त हों हे सर्वज्ञ प्रभु!आपके शासन में जीने वाले संत, श्रावक, निग्रंथ इतने अनुशासित हैं तो आपका अनुशासन कितना विशाल होगां इसलिए, हे प्रभु! आपका शासन आत्मानुशासन हैं आत्मानुशासन में वही रह सकता है जो युक्तानुशासन को समझता है, जिसे आप लोग कहते हो जुगाडं
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