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- आस्था की ओर बढ़ते कदम कारण ऐसा बना कि आचार्य तुलसी जी ने अखिल भारतीय स्तर पर एक मीटिंग २५००वां महावीर निर्वाण शताब्दी कमेटी की एक मीटिंग बुलाई थी। एक तीर से दो निशाने वाला काम हुआ। आचार्य श्री का उस वर्ष का चतुर्मास हिसार के जिंदल भवन में था। हम धूरी से रात्रि को चले। सुबह ही आचार्य श्री के प्रवास स्थल पर पहुंचे। यह मंगलमय समय सुवह का था। जब हम पहुंचे तो विशाल. प्रवचन स्थल देखा। यह पंडाल बडे व्यवस्थित ढंग से बनाया गया था : यात्रीयों का तांत: लगा हुआ था। मैं अपने धर्मभ्राता रविन्द्र जैन के साथ गुरुदेव के दर्शनों को पहुंचा। वहां पहुंचते ही बूंदा-बांदी होने लगी। जैन साधु ऐसे मौसम में ना बाहर निकलते हैं न भोजन करते हैं। वह वां रूकन का इंतजार करते हैं। आचार्य श्री की दिनचर्या शुरू होने वाली थी। वह भी वर्षा रूकने का इंतजार कर रहे थे।
मैं व मेरा धर्मभ्राता रविन्द्र जैन ने आचार्य श्री के चरणों में बन्दन किया। पहचानने में समय नहीं लगा, क्योंकि उने चित्र को हम हमेशा प्रणाम करते हैं। मैंने देखा ‘एक श्वेत वस्त्रधारी चेहरा, वडी-बड़ी आंखें, चेहरे पर दार्शनिकों सी मुस्कुराहट ने मेरा अभिनंदन किया। अचानक वर्षा में हम कुछ घबरा गए थे। पर उनकी शरण में आते ही सब बात भूल गए। फिर उन्होंने हमारा वन्दन सरलता से स्वीकार करते हुए पहले मुझे संबोधित करने हुए पूछा "भाई ! आपका नाम क्या है ? आप कहां से आए हो ? क्या काम करते हो ?, यह सीधे सादे प्रश्न थे। हर प्रश्न में उनकी महानता झलक रही थी। मैं सोचने लगा कि कहां लाखों लोगों द्वारा वन्दनीय आचार्य और कहां हम दुनियावी लोग। उनकी महानता उनकी विनम्रता व शालीनता सराहनीय थी। मैंने कहा “गुन्देव ! मैं धूरी से आया हूं। मेरा नाम पुरूषोत्तम
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