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= आस्था की और वो कदम वर्धमान डूंगरगढ़ जा रहे थे। उन दिनों भयंकर गर्मी पड़ रही थी। गमी का भीपण प्रकोप राजरथान में कुछ ज्यादा होता है। फिर जैन मुनि नंगे पांव व नंगे सिर भ्रमण करते हैं। वैसे
भी मुनि श्री वर्धमान महान तपरवी थे। उन्होंने गर्म कपड़े __ ओठने का त्याग कर रखा थाः। अल्प परिग्रह ही उनका जीवन था। उनकी कहनी कथनी एक थी।
डूंगरगढ़ मुनि पहुंचे तो भयंकर गर्मी के प्रकोप से वेहोश हो गए। इस धरती पर उन्होंने अंतिम श्वास ली। मुझे उनके देवलोक, गमन का पता तीन दिन बाद लगा। मुझे भयंकर आघात पहुंचा। इसी आघात को लेकर मैं डूंगरगढ़ सपरिवार पहुंचा। उनके साथी मुनि राज से वात की। उस धरती को प्रणाम किया। यह श्रद्धा व आरथा से भरी यात्रा, एक स्वर्गवासी आत्मा को समर्पित धी। जिन्होंने मेरे जीवन निर्माण में प्रमुख हिस्सा डाला है। जिनका आशीवाद मुझे ने मेरे हर कार्य में सहयोगी रहा है। पर उनका लम्बे समय के वाद पंजाव आगमन अंतिम आगमन था। उनका मन पंजाव छोडने को नहीं था। पर तेरापंथ संघ व्यवस्था में यात्रा का निर्णय आचार्य करता है। उसी आज्ञा को शिरोधार्य करके मुनि वर्धमान जी ने इंगरगढ़ की यात्रा की थी, जो उनकी अंतिम यात्रा सिद्ध हुई। - डूंगरगढ़ से मेर मन मे उनके पुराने साथी मुनि श्री जय चन्द्र जी महाराज के दर्शन का कार्यक्रम बना। श्री जय चन्द्र जी महाराज तेरापंथ धर्म संघ के प्रमुख संत हैं। मेरी अहमदावाद यात्रा का कारण भी आप थे। अब इस यात्रा को किए लम्वा समय बीत चुका था। वैसे भी आप व्योवृद्ध तपरवी व महान धर्म प्रचारक संत हैं। आप उदयपूर के नजदीक एक गांव अंकोला में विराजमान थे। मैंने डूंगरपूर से लाडनूं की ओर प्रस्थान किया।
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