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- आस्था की ओर बढ़ते कदम के पुण्य के संस्कार धे कि मात्र १२ वर्ष की आयु में आप ने आपकी मौसी की लड़की व माता ने आचार्य मधवागणी के चरणों में संयम अंगीकार किया। यह घटना संवत १६४४ के आश्विन शुक्ला ३ की है।
जन्म के समय ज्योतिष्यों ने सुन्दर भविष्यवाणी की थी और इनके दादा को इनके सुन्दर भविष्य के बारे में बताया था। लगभग १२ वर्ष तक आप कठोर अनुशासन में शिक्षा ग्रहण करते रहे। आप गुरू आज्ञा को भगवत् आज्ञा मानने वाले थे।
मुनि कालुगणि जी संवत् १९६६ की भाद्रपद शुक्ला १२ को आचार्य डालगणि के स्वर्ग सिधारते ही इस परम्परा के अष्टम आचार्य बन गए। आप. की इच्छा आचार्य पद की प्राप्ति नहीं थी वह तो संयम को श्रेष्ट मानते थे। पर श्री संघ की आज्ञा को शिरोधार्य कर आप ने इस पद को स्वीकार किया।
आप ने आचार्य बनते ही तेरापंथ संघ में संस्कृत की पढ़ाई की। मुनियों व साध्वीयों को भी अग्रसर किया। पं. घनश्याम जैसे ब्राहमण को तैयार किया, ताकि वह जघ्न मुनियों को व्याकरण पढाएं। आप ने प्रसिद्ध वैयाकरण आचार्य पंडित रघुनन्दन की सहायता से दो महान ग्रंथ भिक्षु शब्दानुशासन और कालूकोमदी की रचना अपने शिष्य मुनि चोथ मल्ल से करवाई। आप ने अनेकों प्राचीन श्वेताम्बर व दिगम्बर ग्रंथों का सूक्ष्म अध्ययन, तुलनात्मक दृष्टि से स्वयं किया। दूसरे मुनियों व साध्वीयों को भी करवाया। आप ने अनेकों विदेशी विदवानों को भी प्रभावित किया।
राजस्थान राज्य के विभिन्न नरेशों व दरवारों में आप के ज्ञान की चर्चा थी। यह नरेश सहज रूप से आप
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