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आस्था की ओर बढ़ते कदम
१६२० की आषाढ़ शुक्ला १३ की है ।
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माता का प्रभाव पुत्र पर पढता है । बालक को वैराग्य के मार्ग पर वढना सरल हो गया। समस्त परिजनों व वैभव को छोड़ उन्होनें संवत् १९२३ की भाद्रपद कृष्णा १२ को संयम अंगीकार किया । आप की बुद्धि बहुत तीव्र र्थी ४ वर्ष तक वह जवाचार्य के सानिध्य में ज्ञान अर्जित करते रहे । वह शास्त्र मर्मज्ञ हो गये। उन्हें कई आगम कण्ठस्थ थे। संस्कृत व राजस्थानी के उनेको श्लोक को कण्ठस्थ किया। वह महान वक्ता वने । इन्हीं योग्यताओं के कारण संवत् १९३० को वह अग्रणी बनाए गए। आप का समय धर्म चर्चाओं का युग था । इन चर्चाओं का आप ने समभाव से सामना किया।
आप ने राजस्थान, मध्यप्रदेश, कच्छ, गुजरात व सौराष्ट्र के गांव गांव जाकर धर्म प्रचार किया। आप अपनी परम्परा के रक्षक आचार्य थे। आप ने अनेकों लोगों को संयम के मार्ग पर लगाया । संवत १९५४ माघ कृष्णा १२ को आन श्री को आचार्य पद प्रदान किया गया। आप महान आचार्य थे। इस प्रकार लोगों के जीवन का निर्माण करते हुए अपने चरण कमल से धरती को पवित्र करते हुए आप लाडनू परे । जहां आप के दो चर्तुमास हुए। संवत् १६६६ की भाद्रपद शुक्ला १२ को आप का देवलोक हुआ । अष्टम आचार्य श्री कालुगणी जी :
आप का जन्म संवत् १९३३ की फाल्गुण शुक्ला २ को बीकानेर राज्य के जालछापर गांव के कोठारी परिवार में हुआ। पिता का नाम श्री मूलचंद व माता का नाम होगा जी था। आप अकेली संतान थे। आप का शरीर बहुत सुंदर था। अल्पायु में पिता का नाया सिर से उठ गया । पूर्व जन्न
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