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- आस्था की ओर बढ़ते कदम पहुंचती है । सारी रात्रि में आवागमन बना रहता है । मन्दिर को सुन्दरता से सजाया जाता है । हर तरफ से देश के विभिन्न प्रान्तों के श्रावक व श्राविकाओं के दर्शन हो रहे थे । बरसी तप पारणे का आंखों देखा हाल
आखिर वह मंगलमय वेला आ गई । पहली वरसी तप का अर्थ समझना जरूती है, जिसकी. पूर्ति के लिये यह समारोह होता है । श्रावक अक्षय तृतीया के अगले दिन पुनः उपवास करता है । एक दिन भोजन करता है, एक दिन शुद्ध निराहार रहता है । उस दिन भी वह जल ग्रहण करता है । इस तरह ६ मास विना भोजन के जो तप किया जाता है उसे वरसी तप कहते हैं । वह भगवान ऋषभदेव को स्मरण करने का ढंग है । उन्हें जिस तरह साल के बाद भोजन मिला था, उस तरह उनके भक्त उसी विधि से पारणा करते हैं । यह पारणा उनके पोत्र श्रेयांस कुमार पारणाक्षु रस से करवाया था । ठीक इसी वात को ध्यान में रखकर तपस्वियों के पोत्र द्वारा इक्षुरस से सम्पन्न करवाया जाता है, अगर किसी के पोत्र नहीं है तो वह किसी बच्चे को धर्मपोत्र मानकर यह शगुन पूरा करता है।
तपस्वी सर्वप्रथम सुबह मन्दिर में दर्शन का पारणा रथल पर जलूस की शक्ल में जाते है । सभी यात्रियों के साथ उनके परिवार-रिश्तेदार होते हैं । सभी पारणा स्थल पर पूजा करते है । पूजा वालों की भीड़ रहती है । इस तरह दोपहर का समय हो जाता है । लोग सुवह नन्दिर में आते हैं, फिर मुख्य मन्दिर में पूजा की जाती है । इस तरह दोपहर के समय यह समारोह पारणा मन्दिर में शुरू होता है । सभी पारणे वाले लन्दी पंक्तियों में बैठते हैं ।
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