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आस्था की ओर बढ़ते कदम
हैं । गंगा नहर की खुदाई में कुछ प्राचीन प्रतिमाएं निकली थीं जो अब यहां के प्राचीन दिगम्वर मन्दिर में विराजित हैं । यह तीर्थ सिद्धभूमि है । जैन इतिहास के अनुसार विष्णु कुमार मुनि ने ५०० मुनियों की रक्षा की थी । उसी में रक्षा वंधन का पर्व हुआ । इस प्रकार दो पर्वो का सम्बन्ध हस्तिनापुर से हैं ।
आचार्य श्री जिनप्रभव मुनि ने यहां अनेकों प्राचीन मन्दिरों का वर्णन किया है । जो उनके समय स्थापित थे । आज जिस स्थान पर मन्दिर है, वह एक ऊंचे टीले पर स्थित है । ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में इसी स्थान पर मन्दिर रहा होगा । यहां प्रभु कुथुनाथ, प्रभु अरहनाथ व शांतिनाथ के चरण युगल स्थापित हैं । यह जंगल का क्षेत्र है, वहां प्रकृति के दृश्य अति सुन्दर हैं, यहां प्राचीन विदुर के किले की दीवारें हैं । यहां दो टीले हैं, एक को कौरव का टीला कहते है, दूसरे को पांडव का टीला । यहां भरपूर गन्ने की फसल होती है । इस तीर्थ के बारे में शास्त्रों में आया है :
“पोत्रं श्री ऋषभदेव श्रेयांसः श्रेयांसन्वितो दाता, वितं शुद्धेक्षुदयो न विद्यते भूतलेन्थन ।”
अर्थात् ऋषभदेव के समान पात्र श्रेयांस के समान श्रद्धा-भक्ति और भावपूर्वक देने वाला दाता, इक्षुरस के समान शुद्ध - निषेध आहार इस पृथ्वी पर अन्यत्र नहीं हुआ । इसी पारणे की खुशी में श्रेयांस कुमार के पिता महाश्रमण वाहुवली ने उनकी स्मृति में तक्षशिला में चरण चिन्ह स्थापित किये ।
जैन इतिहास में १२ चक्रवर्ती हुए । उनमें से ८ यहां पैदा हुए । इन छठ चक्रवर्तीयों में आठवां चक्रवर्ती नर्क में गया । चौथे व आठवें ने दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त
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