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----- સ્થા શી ગોર હવે ત્રા पार किनारे पर लगाये वह तीर्थ है । इस प्रकार की तीर्थ यात्रा मैंने जीवन के कुछ पल निकालकर अपने प्रिय शिष्य धर्म भाता रवीन्द्र जैन मालेरकोटला के साथ की थी । उन दिनों में मंडी बन्दगढ़ आ चुका था, अपना काम भी शुरु कर चुका था अपने पूज्य माता-पिता की आज्ञा लेकर मैंने यह कार्यक्रम बनाया । मेरी भावना थी कि मैं अपने धर्मभ्राता मालेरकोटला के साथ तीथों की इतिहासिक यात्रा करूं । वैसे मेरा धर्मभ्राता की आज्ञा से १९८० में इन तीथों की यात्रा कर चुका था तीसरा कारण था राष्ट्र संत उपाध्याय श्री अमरमुनि जी -2 की व्योवृद्ध अवस्था धी । मैं उनसे पहली वार धर्माता के साथ आगरा में १६७२ में मिला था । अब मेरे भ्राता रवीन्द्र जैन का कहना था कि तीर्थ क्षेत्र के साथ महाराज श्री अमरमुनि म० के दर्शन लेंगे । वह व्योवृद्ध अवस्था में हैं, यह कुछ कारण थे जिन्होंने मुझे यह यात्रा करने की प्रेरण दी थी । मेरे धर्म भ्राता रवीन्द्र जैन मुझे इन तीथों की महान्त बताते रहते थे । मेरे मन में उनकी हर वात का एक है. उत्तर होता "जव भगवान बुलायेंगे, हम अवश्य जायेंगे .' जव उनका बुलावा आया तो भला कौन रोक सकता है ? परिस्थितियां अपने आप ठीक होने लगती हैं । हमारे परिवार के लोग मेरी तीर्थयात्रा से बहुत प्रसन्न थे । यह मेरे जीवन की सबसे लम्बी तीर्थयात्रा थी जिसमें लगभग १० दिन का समय व्यतीत हुआ । शायद दो , , को छोड़कर हम लगभग जागते ही रहे । यात्रा दिन । जारी रहती, क्य के इतनी लम्बी यात्रा मेरे विचार से ऐसे ही सम्पन्न हो सकती है। इस यात्रा में मुझे बहुत आध्यात्मिक लाभ हुआ । यह यात्राएं मेरे लिये बहुत ही ज्ञानवर्धक रहीं । मुझे गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त था ।
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