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आस्था की ओर बढ़ते कदम
आप ने आठवीं तक पढ़ाई सम्पन्न की। माता पिता दीक्षा लेने के लिए मान रहे थे। पहले आप को कहा गया कि बालिग हो जाओ, फिर संयम ग्रहण कर लेना । पर आप के बालिग होने के पश्चात भी आप के पिता ने आप को आज्ञा प्रदान नहीं की । जैन धर्म का यह नियम है कि किसी भी स्त्री पुरूष को उनके अभिभावक की आज्ञा के बिना साधु नहीं बनाया जा सकता । आखिर १५ अगस्त १९४७ को देश स्वतन्त्र हो गया। परत पाक बंटवारे में हिन्दू मुस्लिम फसाद शुरू हो चुके थे । लज्जा ने सोचा "माता पिता किसी कीमत पर संयम ग्रहण करने की आज्ञा नहीं देंगे। पर मुझे अपने आत्म कल्याण करना है। संसार में नहीं फंसना ।" वैराग्य दृढ़ होता गया। आप घर से पलायन कर बम्बई पहुंच गई। घर में तूफान खड़ा हो गया। आप बम्बई से पालीताना तीर्थ पर पहुंची। जहां पंजाबी धर्मशाला में आचार्य समुद्र विजय बेराजमान थे। यहां आप की भेंट अपनी संसारिक बुआ साध्वी दक्ष देव श्री से हुई। आप के माता पिता पंजाव में आप की तलाश कर रहे थे। वह जालंधर पहुंचे। वहां उन्हें -ता चला कि लज्जा पालिताना तीर्थ में सकुशल है अगर दीक्षा की आज्ञा दोगे तभी वहां वह पंजाब आ जाऐगी। आखिर माता पिता को अपनी संतान के आगे झुकना पड़ा। वह पालिताना पहुंचे। कुछ दिन तीर्थ यात्रा सम्पन्न कर लज्जा को वापस ले कर पंजाव में आ गए।
दीक्षा :
२७ अक्तूबर १९४७ को लज्जा का संयम का नेप मिला। यह कार्य साध्वी राजमति की नेश्राय में जालंधर छावनी में हुआ। साध्वी बनते ही आप ने जप-तप-स्वाध्याय तीनों का क्रम को जीवन का अंग वना लिया। यह जप तप जीवन में ५४ साल तक चला। वडी से बडी मुस्वित में आप
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