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- आस्था की ओर बढ़ते कदम भक्तामर स्तोत्र १ :
यह रचना प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभ देव को समर्पित है। यह इतना सुन्दर काव्य है कि संसार की भिन्न भिन्न भाषाओं में इन का अनुवाद हो चुका है। इस रचना का अपना एक इतिहास है।
"उज्जैनी नगरी के राजा भोज प्रसिद्ध वेदिक धर्म के उपासक व शिव भक्त थे। उन के दरवार में नव रत्न रहते थे जो उनकी हर जिज्ञासा का उत्तर देते थे।" ।
___“एक दिन की बात है कि मयूर नाम के ब्राह्मण ने अपनी पुत्री की शादी वाण ब्राह्मण से कर दी। पर यह शादी के तत्काल ही झगड़ा होने लगा। वाण को उसकी पत्नी ने श्राप दिया। श्राप के कारण वह कुष्टी हो गया। वाण ने सौ श्लोकों की सूर्य स्तुती की रचना की, जिस के प्रभाव से उस का कष्ट दूर हो गया। फिर उस ने अपने हाथ पैर काट कर देवी को अर्पण कर दिए। देवी ने प्रसन्न हो कर उसे आर्शीवाद दिया। उस का शरीर सुन्दर व निरोग हो गया।
इन चमत्कारों के प्रभाव से वाण जैन धर्म का निन्दक हो गया। इन चमत्कारों की वात राजा भोज व आचार्य मानतुंग तक पहुंची।
एक दिन वाण ने राजा से कहा "जैन भिक्षु तो भिक्षा से शरीर यापन करने के लिए जीते हैं। इन के यहां कर्को विद्या चमत्कार नहीं। यह अज्ञानी हैं। यह शैवों की तरह चमत्कार नहीं दिखा सकते ?"
“अगर इन के पास कोई चमत्कार हो, तो इन्हें दरवार में बुला कर कुछ चमत्कार दिखाने को कहा जाए"। जैन श्रावकों को कहा जाए कि वह दरवार में अपने गुरुओं
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