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= વાયા ને વોર વહ હમ संबंध नहीं बनाना चाहिए। ऐसा रिश्ता आग के करीव घी का रिश्ता है। इस लिए श्रमण को वाल, वृद्ध, नातिन और भगिनि के शरीर का स्पर्श भी नहीं करना चाहिए। साध्वीयों को गृहरथों के कायों में किसी प्रकार का संबंध नहीं रखना ही सुगच्छ का लक्षण है। इस सूत्र में गच्छ की परिभाषा गच्छ में रहने वाले साधू व साध्वीयों के कर्तव्य का स्पष्ट वर्णन है। साध्वीयों के बारे में इस शास्त्र में विशेष मनोविज्ञान चेतावनी दी गई है।
यह ग्रंथ प्रर्किणक कहलाता है इस का विमोचन १० नवंबर को हुआ था। यह हमारी अर्ध वार्षिक पत्रिका पुरुषोत्तम प्रज्ञा के अंक का भाग था। यह पत्रिका का संपादन प्रकाशन मेरे धर्म भ्राता रविन्द्र जैन करते हैं। यह पत्रिका मेरे नाम को समर्पित उनकी गुरू भक्ति का प्रतीक है। उन्होंने इस प्रर्किणक का अनुवाद करने की मेरे को प्रेरणा ही नहीं दी, वल्कि इस अनुवाद को हर प्रकार से सहयोग दे कर प्रकाशित किया। इस ग्रंथ को पढ़ने के पश्चात् हमें पुरातन जैन गच्छ परम्परा और उस के अनुशाषण का पता चलता
वीरथुई - ५ .. वीरथुई कोई स्वतंत्र रचना नहीं। यह तो प्रभु महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मा द्वारा की गई गुण पूरक स्तुती है। जिसे श्री सूत्रकृतांग सूत्र में स्थान दिया गया है। जैन समाज ही नहीं, समग्र कव्य जगत में यह प्राचीनतम् काव्य है। गणधर सुधर्मा के शिष्य आर्य जम्बु स्वामी ने पूछा “प्रभु ! आप ने तो श्रमण भगवान महावीर को बहुत करीव से देखा है, सुना है, ऐसे श्रमण भगवान महावीर कैसे थे ? उनका गुण ज्ञान कैसा था ? कृपया मुझे वताएं। इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य सुधर्मा ने अपने
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