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સ્થા હી દોર તો મ निर्युक्त्किार आचार्य भद्रबाहु ने इस सूत्र की महत्वपूर्ण स्तुति इस प्रकार की है :
"जो जीव भव भ्रमण को समाप्त करके शीघ्र मोक्ष को प्राप्त करने के योग्य है जिनका भव में बंधन कम रह गया है। इस प्रकार के महापुरूष श्री उतराध्ययन सूत्र के ३६ अध्ध्ययन का शुद्ध हृदय से अध्ययन करते हैं। जिनका भव बंधन बाकी है। जिनका संसार भ्रमण बाकी रह गया है । जिन जीवों के अशुभ कर्मों के कारण अशुभ विचार है वह उतराध्ययन का अध्ययन करने के अयोग्य है । इस लिए जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित शब्द और विशाल अर्थो वाले इस उतराध्ययन सूत्र का विधि सहित तप करके, गुरूओं से प्रसन्नता से अध्ययन करने चाहिए ।"
इस ग्रंथ की गणना मूल सूत्र से की गई है। दश्वेकालिक, आवश्यक सूत्र के वाद नव दीक्षिता साधु व साध्वी के लिए इस शास्त्र का अध्ययन जरूरी है I प्रथम अध्ययन विनय श्रुत में भिक्षु को मर्यादा से जीवन गुजारने का निर्देश है। गुरू व शिष्य का रिश्ता, उस के लक्षण बताए गए हैं। ४८ गाथा वाले अध्ययन में शिष्य को अनुशाषण में रहने का आदेश है । शिष्य को विनित बनने का उपदेश है । विभिन्न उदाहरणों से विनयवान शिष्य को विनय धर्म ग्रहण करने का आदेश है । इस उपदेश में अविनित शिष्य को सडे कान वाली कुतिया व सूअर से तुलना की गई है। शिष्य को समझाया गया है कि गुरू की किसी बात का गुस्सा न करे । गुरु के समक्ष कैसे बैठें ? कैसे बात करें ? कैसे झूठे वचनों से बचें ? कैसे विनय वान हो कर गुरू से ज्ञान अर्जित करें? सव का वर्णन समझाया गया है ।
दूसरे अध्ययन में साधु जीवन में आने वाले कष्टों का वर्णन है । इन कष्टों के कारण कई वार कई लोग
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