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जेण तच्चं विबुज्झेज्ज जेण चित्तं णिसज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज्ज तं णाणं जिणसासणे।।70 || __ जेण रागाविरज्जेज्ज जेण सेरासुरज्जदि।
जेण मित्त प्रभावेज्ज तं णाणजिणसासणे।।71 || स्वाध्याय करने से तर्कशक्ति, बुद्धि की प्रकर्षता, परमागम की स्थिति इन्द्रियादिक दमन, कषायों पर विजय, उत्तम तप की वृद्धि, संवेग, धर्म, धर्म के फल में अनुराग, वस्तु का यथार्थ ज्ञान एवं निर्णय, दर्शन की शुद्धि, व्रतादि में अविचारों का अभाव, परवादियों के पराभव का कौशल और जैनधर्म की प्रभावना करने की शक्ति आदि सद्गुणों का विकाश होता है।
जिनवाणी का स्वाध्याय करने से ही आत्मज्ञान होता है। शास्त्र स्वाध्याय के माध्यम से हमें अपने चैतन्य रत्न को निकाल लेना चाहिये। जो इन इन्द्रियों द्वारा जाना जाता है, वे मेरा स्वरूप नहीं है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है- हमारा स्वरूप क्या है? "अवर्णोऽहं"मेरा कोई वर्ण नहीं, “अस्पर्शोऽहं" मुझे छुआ नहीं जा सकता। यह मेरा स्वरूप है। पर मोह के अंधकार में यह अज्ञानी प्राणी इस पुद्गल शरीर को ही 'मैं' मान लेता है।
मोह-वह्निमपाकर्तु स्वीकुर्तु संयमश्रिम्।
छेत्तु रागदुकोद्धन समत्वभवम्ब्यताम् ।। मोह अग्नि के समान है। अग्नि का संताप तो देह पर अल्पकालीन असर डालता है, किन्तु मोहजनित संताप आत्मा को तपाता हुआ चिरकाल पर्यन्त भवभ्रमण कराता है। जब मोहनीय कर्म का उदय आता है, तो कई सद्गुणों को भस्म कर देता है। इसके ताप से समस्त संसार पीड़ित है, किन्तु फिर भी इसकी मोहनी शक्ति से जीव अपना पिण्ड नहीं छुड़ा पाते।
जिनवाणी का स्वाध्याय एक चाबी की तरह है, जिससे मोहरूपी ताले को खोला जा सकता है। हमें भेदविज्ञान की कला में पारंगत होना चाहिए। भावश्रुत की उपलब्धि के लिये हमारा अथक प्रयास चलना चाहिए। स्वाध्याय वह साधन है जिसके द्वारा आत्मा की अनुभूति, समुन्नति होती है, उसका विकास किया जा सकता है। जिनवाणी का स्वाध्याय करने पर इस शरीर के भीतर छुपा हुआ जो
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