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कर लिये, पर ठंड न मिट सकी। उसका कारण यही था कि ठंड मिटाने का जो मूल निमित्त अग्नि थी, उसका उन्हें ज्ञान नहीं था।
इसी प्रकार जो भगवान् के वीतराग स्वरूप को समझे बिना केवल देखा-देखी पूजा करते हैं, वे रोग-द्वेष आदि विकारी भावों को दूर नहीं कर सकते। राग-द्वेष, मोह आदि की प्रवृत्ति तभी तक जीव में रहती है, जब तक वह अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप की उपलब्धि से वंचित रहता है। भगवान् की भक्ति से, उनका चिंतन-मनन करने से आत्मस्वरूप अपने आप ज्ञात हो जाता है। जिस प्रकार एक जलते हुये दीपक से अनेक बुझे हुये दीपकों के जलाया जा सकता है, उसी प्रकार भगवान् के स्वरूप को पहचान कर अपनी आत्मा का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। भगवान् की आत्मा शुद्ध चिद्रूप है, अतः उनके स्मरण, मनन व ध्यान से अपने शुद्ध चिद्रूप स्वभाव की प्राप्ति होती है। अपने विकारों से उत्पन्न होने वाली अशांति को रोकने तथा आत्मिक शांति को विकसित करने के लिये भगवान् का स्मरण ही एकमात्र साधन है। इस आत्मा में सिद्ध बनने तक की शक्ति है। हम अपने स्वरूप को भूल गये हैं। यह स्मृति प्राप्त करने के लिये जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा की पूजा-भक्ति करना अनिवार्य है। इस काल में भगवान् की मूर्ति ही आत्मकल्याण के लिये सच्चा सहारा है। यह संसार-समुद्र से पार करने के लिये नौका के सदृश है, वीतराग भावों को उत्पन्न करने में निमित्त-कारण है। कहा भी है
__ आप्तस्यासन्निधानेऽप पुण्याया कृति पूजनम् । तार्य मुद्रा न किं कुर्यात् विषसामर्थ्यसूदनम्।।1 । (यशस्तिलक)
तीर्थंकर भगवान् के न होने पर भी उनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाओं की भक्ति, पूजन से महान् सातिशय पुण्यबंध होता है। जैसे गरुड़ के न होने पर भी उसकी मूर्ति मात्र से क्या सर्प का विष नहीं उतरता? अवश्य उतरता है।
___ संसार में बाह्य निमित्त के अनुकूल प्राणियों के भाव होते हैं। दृष्टान्त है कि यदि कोई मनुष्य वेश्या की फोटो देखता है तो उसके हृदय में काम वासना जाग्रत हो जाती है। यदि कोई पुरुष किसी वीर पुरुष की फोटो देखता है तो उसमें वीर रस का संचार होता ही है। यदि साधु महात्माओं की फोटो देखता है,
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