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प्राप्त किया है। अतः अब तो मिथ्यात्व/मोह को छोड़ो। यह मोहजाल बड़ा विकट बंधन है। मोह में अपने आपकी गलती अपने को मालूम नहीं होती। ऐसी परिस्थिति को मोह कहते हैं। गलती करते हुये यदि यह ध्यान रह सके कि यह गलती है, तो वहाँ मोह नहीं है, गलती जरूर है। मोह बड़ी गलती कहलाती है, अन्य गलतियाँ कम गलती कहलाती हैं। हम भगवान की भक्ति का आनन्द तभी पा सकते हैं, जब मैं भगवान् के स्वरूप को अपने आपमें बसाऊँ। जहाँ इतना व्यामोह है कि धन, वैभव, परिवार आदि अनेक चीज अपने आपमें बसाये हुये हैं, वहाँ भगवान् की भक्ति नहीं हो सकती। यहीं तो देख लो, कोई मनुष्य अपने मित्र के शत्रु से भी प्रेम करता हो, तो मित्र के द्वारा क्या आदर पा सकता है? नहीं । भगवान् का शत्रु कौन है? विषय-कषाय या विषय-कषायों का शत्रु कौन है? भगवान्। तो भगवान् के दुश्मन विषय-कषाय हैं। यदि भगवान् के शत्रु विषय-कषायों में हमारी रुचि हो, तो क्या भगवान् की भक्ति बन सकती है? नहीं बन सकती है। अतः हम भगवान् की भक्ति करते समय अपने चित्त से समस्त बाह्य पदार्थों को हटा दें, केवल भगवान् का ही अनुभव बनायें, तो हमारी भगवान् की भक्ति सम्यग्दर्शन प्राप्त करने में कारण बनेगी। जो जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति नहीं करता, वह जघन्य कोटि का मनुष्य है। कहा भी है
केचिद्वदन्ति धनहीनजनो जघन्यः, केचिद्वदन्ति गुणहीनजनो जघन्यः । ब्रूमोनयं निखिलशास्त्र विशेषविज्ञाः,
परमात्मनः स्मरणहीनजनो जघन्यः ।। कुछ लोगों का यह सिद्धान्त है कि जिसके पास धन नहीं है अर्थात् जो दरिद्र है, वह जघन्य कोटि का मनुष्य है। कुछ लोगों का सिद्धान्त है कि जिसने मानवीय जीवन सदृश उच्च पद प्राप्त करके सद्विद्या, सदाचार आदि मानवोचित गुण प्राप्त नहीं किये, वह जघन्य कोटि का मनुष्य है। सभी शास्त्रों के विद्वान् यह कहते हैं कि जिसका हृदय भगवान् की भक्ति से शून्य है, वह जघन्य कोटि का मनुष्य है। 'नीतिवाक्यामृत' में लिखा है
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