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अतः विषय-कषायों को छोड़कर संयम को धारण करो। श्री सहजानन्द वर्णी जी ने 'सहजानन्द गीता' में लिखा है
संयमेन नरा धीरो गंभीर: शल्यनिर्गतः । संयमः स्वस्थितिस्तस्मात्स्यां स्वस्मै सुखी स्वयम् ।।5-39 ।।
संयम से मनुष्य धीर होता है। संयम से मनुष्य गम्भीर होता है, निःशल्य होता है और सुखी होता है। आत्मा में भली प्रकार से स्थित हो जाने को संयम कहते हैं, इसका नाम संयम है और इस संयम के लायक हम बने रहें, ऐसी प्रवृत्ति करने का नाम भी संयम है। शुद्ध भोजन-पानी ग्रहण करना, विषयों का त्याग करना, अनशन, ऊनोदर आदि तप करना, परिग्रह का त्याग करना, ये सब संयम होते हैं। इन सभी प्रवृत्तियों में रहने वाले लोग अपने अन्तरंग संयम का पालन कर सकने की योग्यता रख सकते हैं। जो विषयासक्त हैं, कषायों में लीन हैं, व्यसनी हैं, अन्टसन्ट इधर-उधर बोला करते हैं, ऐसे जन क्या आत्मा में स्थिर होने का प्रयत्न कर सकते हैं? नहीं कर सकते । अतः हम संयम से रहें और अपने धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन करें, जिससे विभाव भावों से हटकर हम अपने शुद्धचारित्र के पालन कर सकने के पात्र रह सकें।
भगवान् के दर्शन करते समय भगवान् की मुद्रा को निरखकर यही भाव आना चाहिए कि हे प्रभु! आपने संसार को असार जानकर सबसे वैराग्य लेकर अपने में अपने को पूजा था, जिसके फल में आप समता के पुंज, अनन्तानन्द निधान बन गये हैं। ऐसी ही शक्ति प्रभु! मुझमें है, क्योंकि द्रव्य से आत्मा वही एक-समान है। मैं भी आपके-जैसी समता को प्राप्त कर सकूँ, ऐसी भावना प्रभु के दर्शन करके भाना चाहिये। यह जीव शांति का समुद्र है। इसमें दुःख और अशान्ति स्वभाव से नहीं है। पर अपने स्वरूप को भूलकर बाहर से सुख की आशा लगाये है, इसलिये सब आनन्द खत्म हो गया है और भिखारी बनकर जगह-जगह भागता फिरता है।
साम्यं विशुद्ध विज्ञानं साम्यं रागविवर्जितम्। साम्यं स्वास्थ्यं सुखागारः स्यां स्वस्मै स्वे सुखी स्वयम् ।।6–43।। समता ही जीव की सम्पत्ति है। जिस मनुष्य के हृदय में समता नहीं है,
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