________________
होना चाहिए। विपत्ति में भी परस्पर सहाई हो, यही सच्चा वात्सल्य है।
मन में वात्सल्यभाव हो तो सारे पारिवारिक, सामाजिक या व्यक्तिगत मतभेद मिट सकते हैं। एक बार आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने कहा था कि समाज में जो विभिन्न जाति-प्रजातियाँ हैं, उनको लेकर आपस में विवाद नहीं करना चाहिए। इससे हमारा संगठन कमजोर होता है। संगठित रहना चाहिए सभी को। संगठित रहने से, परस्पर प्रेम भाव बने रहने से बड़ा लाभ होता है। उन्होंने हँसते हुए कहा कि ये जो खंडेलवाल, पल्लीवाल, पोरवाल, बघेरवाला आदि में जो ‘वॉल' है ना, उसे हटा देना चाहिए। ताकि एक बड़ा-सा हॉल बन जाए और सभी एकसाथ मिलजुल कर बैठ सकें, धर्म्यध्यान कर सकें। ('वॉल' शब्द का अर्थ अंग्रेजी में दीवार होता है) मन में भी आपस में ऐसी दीवार नहीं बनाना चाहिए। द्वेष या ईर्ष्याभाव नहीं रखना चाहिए। अगर यह आपसी द्वेषभाव मिट जाए, तो सभी साधर्मी भाई आपस में प्रेम से रहते हुए अपना और दूसरे का कल्याण करने में सक्षम हैं।
देखो, अगर नदी की बहती धारा में कोई पत्थर या पत्थर-जैसा ही कोई अवरोध आ जाए, तो नदी की धारा दो भागों में विभाजित हो जाती है तब और लाभप्रद नहीं होती. ऐसे ही परस्पर प्रेम का अभाव हो जाए जीवन में, तो प्रेमशून्य व्यक्ति का जीवन पत्थर या अवरोध की तरह है जो हमें परस्पर विभाजित करने में कारण बन जाता है। विभाजित जीवन या टुकड़ों-टुकड़ों में बँटा जीवन व्यर्थ है। उसमें अखण्डता और समरसता नहीं आ पाती। साधर्मी से यदि वैमनस्य हो जाए, तो सारी धार्मिक क्रियाएँ व्यर्थ हो जाती हैं। धार्मिक क्रियाएँ तो निर्मल-मन से करना ही लाभकारी है। मन की कलुषता न मिटे, तो धार्मिक क्रियाओं को दुहराने से लाभ नहीं होगा। आचार्य तिरुवल्लुवर ने 'कुरल-काव्य' में लिखा है कि हृदय में प्रेम, वाणी में मिठास और आँखों में स्निग्धता न हो तो ऐसा जीवन सूखी हुई
795