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साधर्मी के प्रति वात्सल्य भाव वही रख पाता है, जो सदा गुणग्राही है, गुणों की प्रशंसा में रुचि लेता है। दूसरे के दोषों में रुचि लेना अंतरंग में उत्पन्न हुए द्वेष व ईर्ष्या का परिणाम है। गुणों को सहन नहीं कर पाना ही ईर्ष्या कहलाती है। साधर्मी के गुणों को देखकर मन प्रफुल्लित होना चाहिए। साधर्मी के गुणों का सम्मान हो रहा हो तो ऐसा महसूस होना चाहिए कि मानों मेरा ही सम्मान हो रहा है। अभी तो किसी गुणवान् का या साधर्मी का सम्मान होने पर लगता है मानों हमारा अपमान हो गया हो। हम साधर्मी के गुणों की प्रशंसा नहीं कर पाते। असल में, समान व्यक्तियों के बीच परस्पर तुलना का भाव आ ही जाता है। बड़े या छोटे व्यक्ति से तुलना करने का भाव नहीं होता, तुलना तो बराबरी वाले में ही होती है।
राजा साहब की सवारी निकलनेवाली थी। सारा रास्ता साफ किया जा रहा था। जमादार रास्ते में झाडू लगा रहा था। अचानक उसकी नजर झाडू लगाने वाले दूसरे जमादार पर पड़ी। मन ईर्ष्या से भर गया। बात कुछ नहीं थी, जो दूसरा जमादार था वह जरा अच्छे कपड़े पहने था। यह मेरे-जैसा ही जमादार है, पर इसके कपड़े इतने अच्छे क्यों है उत्पन्न हो गई। पास जाकर व्यंग कर दिया कि बड़े बने-ठने दिख रहे हो। राजा हीरे-जवाहरात लगी सुंदर-सी पोशाक पहने निकले तो उनसे कोई ईर्ष्या नहीं हुई, उनके प्रति सम्मान का भाव आया, पर अपने साधर्मी भाई को देखकर उसके प्रति सम्मान का भाव, उचित-व्यवहार करने का भाव नहीं आया, बल्कि उस पर व्यंग कर दिया । वात्सल्य का भाव तो वह है जिसके आने पर हम अपने साधर्मी के गुणों की प्रशंसा करते हैं, उसे आगे बढ़ते देखकर प्रसन्न होते हैं, उसके साथ उचित यानी सम्मानजनक व्यवहार करते हैं।
वात्सल्यभाव रखनेवाले की दृष्टि निर्मल और विशाल होती है। दृष्टि
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