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ने सहायता की, जिससे अचानक ही सब पहरेदार सो गए, जेल के किवाड़ खुल गये और एक संकेत दिया कि अब निकल जावो । वे जेल से निकल कर चले जा रहे थे।
सुबह 9-10 बजे बड़ी चर्चा हुई कि वे दोनों तो जेल से निकल ही भागे। राजा ने चारों ओर नंगी तलवार लेकर अनेक घुड़सवार भेजे । निकलंक ने अकलंक से कहा कि देखो, भाई! अब प्राण नहीं रह सकते हैं, हम तो दो बार में पाठ याद करते हैं, लेकिन आपकी इतनी विशिष्ट बुद्धि है कि एक बार में ही पाठ याद कर लेते हो। तो आप कहीं छिप जाइये। अकलंक बोला, भाई ! यह कैसे होगा, हम क्यों छिप जावें? जब घुड़सवार बहुत ही नजदीक आये, तो निकलंक अकलंक के पैरों में पड़कर गिड़गिड़ाकर कहता है कि क्यों नहीं छिप जाते हो? उस समय एक दूसरे को मना रहा हो कि मुझे मर जाने दो ? आप मुझपर दया करें। आप बच जाइये। उसमें कितनी बड़ी धर्म की वात्सल्यता कही जाय? जिसने धर्म की प्रभावना के लिए जीवन भी लगा दिया हो उससे बढ़कर और उदारता क्या हो सकती है और जो जीवन में अपने प्यारे बन्धु को धर्म के खातिर मरता हुआ देखता सहन करले, उसकी उदारता को भी कौन कह सकता है? भैया! जान लो कि धर्मवत्सलता में अपने आपको कितना न्यौछावर किया जा सकता है?
यह प्रवचनवात्सल्य निजज्ञानी अन्तरात्माओं के प्रकट होती है, तब विश्व के जीवों पर यह दृष्टि जगती है। और फिर सुख का मार्ग आनन्द का मार्ग, शांति का मार्ग बिल्कुल निकट ही तो है। स्वयं ही तो यह आनन्द का भण्डार है। किन्तु यह एक अपने आपको न देख सकने के कारण कितना महान् अन्तर आ गया है, कितनी विडम्बना बन गयी है कि जीव को कुयोनियों में इस प्रकार परिभ्रमण करना पड़ता है। थोड़ा ही तो उपाय है। न करें यह पर का मोह, अपना जो यथार्थ सहजस्वरूप है उसे
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