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प्रवचनवत्सलत्व भावना
रखती जैसे धेनु अपने पुत्र के प्रति प्रीति भाव । त्यागी - व्रती साधर्मी के प्रति, रखना प्यारे निश्छल भाव । । रखते हम वात्सल्य भाव, गर बँधती तीर्थंकर - प्रकृति ।
स्वयं तिरे पर को तारे और, मिट जाती सारी विकृति । जिस प्रकार गाय अपने बछड़े के प्रति निःस्वार्थ प्रीतिभाव रखती है, उसी प्रकार त्यागी, व्रती साधर्मी के प्रति निःस्वार्थ निश्छल भाव रखना चाहिये। वात्सल्यभाव रखनेवाला जीव स्वयं तो पार होता ही है, अन्य जीवों को भी पार लगाता है, संसार की विकृति समाप्त करता है और तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध करता है।
प्रवचन अर्थात् देव-गुरु-धर्म इनमें वात्सल्य अर्थात् प्रीतिभाव, वह प्रवचन वत्सलत्व कहलाता है। जो चारित्रगुण सहित हैं, शील के धारी हैं, परम साम्यभाव सहित हैं, बाईस परीषहों के सहनेवाले हैं, देह में निर्ममत्व, समस्त विषय वांछा रहित, आत्महित में उद्यमी, पर का उपकार करने में सावधान ऐसे साधुजनों के गुणों में प्रीतिरूप परिणाम 'वात्सल्य' है। व्रतों के धारी, पाप से भयभीत, न्यायमार्गी, धर्म में अनुराग के धारक, मंद कषायी, संतोषी श्रावक तथा श्राविका के गुणों में, उनकी संगति में अनुराग धारण करना 'वात्सल्य' है ।
जो स्त्रीपर्याय में व्रतों की हद को प्राप्त करके, समस्त गृहादि परिग्रह को छोड़कर, कुटुम्ब का ममत्व छोड़कर, देह में निर्ममता धारण करके, पाँच इंद्रियों के विषयों को छोड़कर, एक वस्त्रमात्र परिग्रह का आलम्बन लेकर,
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