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आचार्य मानतुङ्ग स्वामी ने, आचार्य वादिराज महाराज ने जिनेन्द्र भगवान् की ऐसी श्रद्धा-भक्तिपूर्वक स्तुति की जिससे कि स्वयं उनका ही नहीं, अनेक जीवों का कल्याण हुआ है और वर्तमान में हो रहा है। अपन से तो भगवान् का गुणगान, उनकी स्तुति जो पहले से लिखी हुई है वही ठीक से करते नहीं बनती, इन महान आचार्यों ने स्वंभूस्तोत्र, भक्तामर स्तोत्र, एकीभाव स्तोत्र आदि की स्वयं रचना करके भगवान् जिनेन्द्र का गुणगान किया है। यह है सही प्रभावना।
सम्यग्ज्ञान के माध्यम से भी मार्ग की प्रभावना होती है। सारा संसार दुःखी है और दुःख का प्रमुख कारण है अज्ञान। हमारा कर्तव्य है कि हम इस अज्ञान के अधंकार को हटाएँ। और सम्यग्ज्ञान का प्रकाश फैलाकर वीतरागमार्ग की प्रभावना करने में सदा तत्पर रहें। समीचीनज्ञान के माध यम से आचार्य समन्तभद्र स्वामी, आचार्य अकलंकदेव और आचार्य विद्यानंदी महाराज ने धर्म की ध्वजा फहराई। संसार में फैले हुए विभिन्न मत-मतान्तरों के बीच सत्य को स्थापित किया। आचार्य अकलंक स्वामी इतने कुशाग्र बुद्धि के धनी थे कि एक बार पढ़ने से उन्हें ग्रंथ-के-ग्रंथ कंठाग्र हो जाते थे। वीतरागभाव की रक्षा के लिए, जब अपने छोटे भाई को राजा के सैनिकों ने पकड़ कर सदा के लिए सुला दिया, तब बहुत दुःखी मन से लेकिन अत्यन्त धैर्य और साहस का परिचय देते हुए आपने अपने प्राण बचाए और शेष जीवन जिनवाणी की आराधना करके वीतराग-मार्ग की महती प्रभावना की।
दान, पूजा, उपवास आदि से मार्ग की प्रभावना होती है। इन्हें सबको करना चाहिए, और सावधानीपूर्वक करना चाहिए। मैं दान दूंगा तो मेरा नाम होगा, मैं पूजा-विधान रचाऊँगा तो लोग मेरा नाम याद रखेंगे, मैं उपवास आदि के द्वारा तपस्या करूँगा। इससे मेरी प्रशंसा होगी, मैं खूब ज्ञान प्राप्त करूँगा तो मेरी ख्याति फैलेगी। पर ये सब दान, पूजा आदि
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