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मगध देश के कांचन नगर में श्रीपाल नामक एक विनयी राजा था उसने वन में प्रतिमा का निर्माण कराकर फलों से उसकी पूजा की थी। उसके पुण्य से वह स्वर्ग को प्राप्त हुआ था। अतएव महान् भव्यजीवों को श्रीमान् जिनेन्द्रदेव के चरण-कमल-युगल की अत्यन्त हर्षपूर्वक पूजा करनी चाहिए। यह पूजा दोनों लोकों में सुख देने वाली है।
जो सम्यक्त्वरूप वृक्ष को सींचने के लिए मेघमाला है, भव्यजीवों को ज्ञान प्रदान कराने वाली मानों सरस्वती है, सत्पुरुषों को स्वर्गादि की सम्पदा प्राप्त कराने के लिए दूती है और मोक्षरूपी महल की सुखदायक सोपानपंक्ति है, ऐसी यह हर्षपूर्वक की गई जिनपूजा समस्त जीवों को सदा श्रेष्ठ सुख प्रदान करने वाली है।
राग-द्वेष के चक्र में फंसे हुए जीवों की निवृत्ति का उपाय प्रारम्भ में राग-द्वेष से रहित भगवान् की पूजा–भक्ति करना है। भगवान् का आलम्बन लिये बिना आज तक तीनलोक में किसी का कल्याण न हुआ और न होगा। तभी तो आचार्यों ने कहा है- हे भव्य जीवो! भगवान् की भक्ति से अपने को जोड़ लो, फिर भगवान् की अलौकिक शक्ति स्वतः ही प्रकट हो जायेगी। जिनदर्शन से ही निजदर्शन होना संभव है। जो व्यक्ति भगवान् की पूजा-भक्ति नहीं करता, उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त होना असंभव है। भगवान् के दर्शन कर अपने शुद्ध स्वरूप का परिचय प्राप्त करने से बढ़कर दुनियाँ में अन्य कोई सम्पदा नहीं है। बाकी जिसे सम्पदा मानते हैं तो जब तक जीवित हैं तब तक बहुत कलंक में लगे हैं और जब मरण हो जायेगा तो सब यहीं पड़ा रह जायेगा और आत्मा को अकेले ही जाना पड़ेगा।
हम यहाँ-वहाँ के लोगों का अनुरंजन छोड़कर, मोह-ममता को त्यागकर, प्रभु में, पंचपरमेष्ठी में अपनी भक्ति को बढ़ायें और अपना जीवन सफल करें। जैसे एक बालक पिता की अंगुली पकड़कर चलना सीखता है, उसी प्रकार एक गृहस्थ देव-शास्त्र-गुरु रूपी पिता की अंगुली पकड़कर चलेगा, तभी उसे मोक्षमार्ग मिल सकता है।
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